उगती हुई उम्मीद का क़ातिल नहीं हूं मैं
ऐसा नहीं कि भीड़ में शामिल नहीं हूं मैं
लेकिन धड़कना छोड़ दूं वो दिल नहीं हूं मैं
कुछ बाँझ ख़यालात का खूनी हूं गर तो क्या
उगती हुई उम्मीद का क़ातिल नहीं हूं मैं
दिल को हो दिल से राह, कोई ऐसी राह हो
घर में दर-ओ-दिवार से दाख़िल नहीं हूं मैं
गो नन्हा सा चराग़ हूं, हूं तो तुम्हारे पास
क्या हो गया जो तारों की झिलमिल नहीं हूं मैं
रखता हूं दूर प्यार से हिसाब की क़िताब
आखिर पढ़ा-लिखा कोई जाहिल नहीं हूं मैं
कानून ही को कटघरे में लाए ना तो फिर
ऐसे किसी गुनाह का क़ाइल नहीं हूं मैं
खोले बिना ही रस्सियां खेते रहें जो नाव
उनकी हदों के पास का साहिल नहीं हूं मैं
रफ़्तारे-ज़िन्दगी को हूं हरदम नया सवाल
हारे हुए जवाबों की महफ़िल नहीं हूं मैं
-संजय ग्रोवर
( तस्वीर: संजय ग्रोवर )