चार स्तंभों का स्तवन
जयशंकर प्रसाद: काव्य-पुरुष
साहित्य की गंगा में, एक स्वच्छ निर्झर,
जिसका स्वर था कोमल, गहरा और अमर।
करुणा की गहराई, और सौंदर्य का स्पर्श,
हर पंक्ति में झलकता था, मानो कोई हर्ष।
“कामायनी” की गाथा में, मानव-मन का गीत,
संघर्ष, शंका, आस्था—सब गुँथे संगीत।
प्रकृति की छाया में, मन की अंतर ज्योति,
प्रसाद के काव्य में है, जीवन की सरगम होती।
इतिहास का नायक भी, उनके नाटकों में बोलता,
चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी में, भारत का गौरव डोलता।
वे कवि ही नहीं, समय के द्रष्टा भी थे,
भारत की आत्मा के, सच्चे साधक भी थे।
आज भी जब हिंदी का, पृष्ठ पलटते हैं हम,
प्रसाद की पंक्तियाँ देतीं, नया जीवन-राग संगम।
वे केवल कवि नहीं, साहित्य का विराट द्वार,
छायावाद के प्राण, जयशंकर प्रसाद अपार।
निराला-स्तुति
जय हो तुम्हारी, ओ महाकवि,
जन-जन के स्वर के रखवाले!
हिंदी की नव चेतना में,
तुम दीपक बनकर उजियाले।
तुम्हारी कलम, शंख-नाद सी,
जिससे टूटा तम का जाल;
करुणा, विद्रोह और प्रेम से,
बना दिया जीवन अविराल।
“राम की शक्तिपूजा” में गाया,
वीरता का अद्भुत गान;
“तोड़ती पत्थर” में दिखलाई,
श्रम का गौरव, श्रम का मान।
तुम तपस्वी, तुम ध्वजवाहक,
तुम जनता की अमर पुकार;
तुम्हारी कविता है आरती,
तुम्हारी लेखनी है साकार।
जय हो, हिंदी के संघर्ष-पुत्र,
जय हो, मानवता के दीये!
निराला, तुम अमर रहोगे,
कवियों के प्राणों में जिए।
प्रकृति-कवि पंत
यह कवि वसुंधरा का गायक,
जिसने रचा “पल्लव” का नायक;
हर पत्ती में ज्योति जगाई,
हर तिनके में छवि दिखलाई।
जिसकी वीणा झरनों से गाती,
“गुंजन” बन पंखुरियों पर आती;
पर्वत की निस्तब्ध गहराई,
जिसमें “युगांत” की भी सच्चाई।
यह कवि कुहासा, यह प्रभात है,
वन-उपवन का मधुमय साथ है;
गगन में तारा, खेतों में धूप,
उसके गीतों में जग का रूप।
सौंदर्य जहाँ जीवन का प्याला,
मानव को प्रकृति ने सँभाला;
धरती का गायक, नभ का द्रष्टा—
यह कवि है युग का सृष्टा!
श्रद्धा-सुमन : महादेवी वर्मा
नारी-मन की वीणा पर,
अनहद स्वर तुमने छेड़े,
आँसू की बूँदों से रचे,
करुणा के अनुपम घेरे।
विरह तुम्हारा आराधन बना,
आँसू तुम्हारी आरती थे,
करुणा की वेदी पर तुमने,
युग-युगांतर की मीरा को जिया।
तुम्हारी वाणी में बसी,
स्निग्ध चाँदनी की शीतलता,
हर पीड़ित हृदय के लिए बनी,
सांत्वना की अमर गाथा।
नीरजा” की बूँदों-सी निर्मल,
“दीपशिखा”-सी उजियारी,
“यामा” की गहन व्यथा में भी
झलकी करुणा अपार न्यारी।
दुख की धुंधलाती राहों पर,
तुम दीपक-सी जलती रहीं,
स्नेह-सरिता की गहराइयों में,
अनगिन जीवन पलती रहीं।
हे करुणा-मूर्ति! हे मातृ-स्वर!
तेरे चरणों में नमन अर्पित,
शीतल हृदय की उस ज्योति को,
श्रद्धा-सुमन यह समर्पित।
© अमन कुमार होली