कभी तुम आना
सुरमई संध्या में है तड़पन,
ये रिमझिम सावन की बूंदें,
ये फूल, कलियाँ, तितलियाँ, भंवरे —
प्रिय! तुम्हारे बिना सब रूठे।
मन-हंसर को है प्रीत तुम्हारी,
कभी तुम आना।
आँखों की नदियाँ प्यासी हैं,
तेरे दर्शन की अभिलाषी हैं।
मन-मरुस्थल को है प्रतीक्षा,
आवारा बादल की छाया की।
बौछारें बरसात की ले आना,
वहीं लम्हे मुलाकात के ले आना,
कभी तुम आना।
अमराई की झुरमुट देखे राह,
मखमली घास के मैदान,
बाहें खोले प्रतीक्षारत हैं।
रूठी हैं बसंती हवाएँ,
कोयल की भी ना भाती सदाएँ।
मौसमों से गीत रचवाकर,
अपने मधुर स्वर में सुनाने —
कभी तुम आना।
चेहरों के मायाजाल में न भटकना,
चाहतों के क्षितिज में न खोना।
दुनियावी रंगों में न रंगना,
बंधनों को तोड़कर,
उन्मुक्त उड़ती पतंग-सी
मेरे आँगन में उतर आना।
दिल की मधुर तड़प बुलाती है —
कभी तुम आना।
झुमके, पाजेब, चुनरी,
मीठी मनुहार ले आना,
अलबेला त्योहार ले आना।
चुरा कर किसी बाग़ से,
हँसते फूल कचनार ले आना,
इंद्रधनुषी प्यार ले आना।
ज़ुल्फ़ों की शाम बुलाती है —
कभी तुम आना।
✍️ दुष्यंत कुमार पटेल