क्या कह....
क्या कह….
शब्दों का चुनाव ही नहीं कर पा रहे हैं
जब जब कहने का प्रयास करते हैं
शब्द मूँक बन जाते हैं
और अधरों से लिपट कर
ख़ामोशी का ऐसा ज़ामा पहन लेते हैं
कि होठों के बीच……
एक रिक्तिता की लम्बी लकीर खिच जाती हैं
जो शब्दों और हृदय के भाव को
अपनी उस रिक्तिता में समा लेते हैं
और फिर शब्द ओढ़ लेते हैं….
उदासी और निठुरता की एक ऐसी ओढ़नी
जिसे खीच पाना मेरे बस की बात नहीं रह जाती।।
मधु गुप्ता “अपराजिता”