मायाचक्र
कभी-कभी मैं सोचता हूं कि आदमी को
जीवन यापन करने के लिए कितने धन की
जरूरत होती है ?
फिर भी उसके धन कमाने की लालसा
कभी कम नहीं होती है ,
जीवन भर इस धन को कमाने के लिए
संघर्ष करता है, लोगों से शत्रुता पालता है ,
कभी इस धन को खोने का दुःख उसे सालता है ,
कदाचित् उसने धन के उपभोग को
सुख का पर्याय मान लिया है ,
उसे पता नहीं है कि एक सीमा से अधिक धन
अपने साथ दुःखों का भंडार लेकर आता है ,
वह लोलुपता से युक्त भ्रष्टाचार, द्वेष ,
वैमानस्य , धोखे एवं षड्यंत्र का जन्मदाता है ,
भौतिक सुखों की पराकाष्ठा में वह
व्यसनों का मायाजाल बुनता है ,
अनैतिक कर्मों के लिए वह
उद्यत एवं उत्प्रेरित करता है ,
अपनों से दूरी एवं अपरिचितों से
निकटता बढ़़ाता है ,
अमानवीय प्रवृत्तियों को
संचरित एवं पोषित करता है ,
जीवन यापन का साधन न बनकर
जीवन मूल्यों के ह्रास का कारण बनता है ,
अपनी लालसा में वह
बुद्धिमान को भी विवेक शून्य बना देता है ,
भौतिक सुखों की चाह में वह मानव को
मानसिक यंत्रणा , तनाव एवं
अवसाद के चक्र में फंसा देता है ,
अपने आप को दांव पर लगाकर
मनुष्य जीवन भर उसे कमाता है ,
पर विडंबना है कि उसे वह
दूसरों के उपभोग हेतु छोड़कर
खाली हाथ ही विदा होता है ।