वो राज़ एक-दूसरे के खोल रहे थे
ग़ज़ल
बिलकुल ही एक जैसी बातें बोल रहे थे
वो राज़ एक-दूसरे के खोल रहे थे
वो तितलियां भी तेज़ थी भंवरे भी जालसाज़
मिल-जुलके सुर्ख फूल पे जो डोल रहे थे
तहज़ीब की तराज़ू भी तुमने ही गढ़ी थी
ईमान जिसपे अपना तुम्ही तोल रहे थे
जिन लोगों ने बनाया अमन को भी इश्तिहार
अंदर से वही मिलके ज़हर घोल रहे थे
-संजय ग्रोवर