वृद्धावस्था का संन्यास – “जब सब टूट गया, तब भगवान याद आया"
• भारत में संन्यास को जीवन का सबसे ऊँचा आदर्श माना गया है। पर आजकल यह आदर्श एक नए रूप में दिखता है — जब आंखों में मोतियाबिंद, कानों में मशीन, दाँतों में नकली पंक्ति और पैरों में कंपन आ जाता है, तभी “गुरुजी” का जन्म होता है। जीवन भर भोग-विलास का झंडा गाड़ने के बाद, जब शरीर का ‘फैक्ट्री आउटपुट’ बंद हो जाता है, तो लोग कहते हैं — “अब मैं सांसारिक मोह छोड़ चुका हूँ, अब मैं आध्यात्मिक हूँ।”
⭐ असल में यह त्याग नहीं, मजबूरी का मेकअप है।
• भोग का लास्ट चैप्टर: जब तक घुटने न दर्द करें, तब तक मंदिर से ज्यादा क्लब में दर्शन होते हैं। मगर जैसे ही डॉक्टर कह दे कि शुगर, ब्लड प्रेशर, और किडनी तीनों लाल झंडा दिखा रहे हैं, बस! भगवा पहनकर प्रवचन शुरू।
• मोक्ष का हड़बड़ी वाला ऑफर: जीवन भर किसी गरीब की सुध नहीं ली, अब स्वर्ग जाने की ‘एक्सप्रेस स्कीम’ में लग गए।
• सम्मान की वापसी योजना: उम्र ढलने पर घर में कोई बात नहीं सुनता, तो बाहर माइक पर बोलना शुरू कर दो — “बेटा, मैं सब छोड़ चुका हूँ।” लोग पैर छूने लगेंगे और खाना-पीना मुफ्त मिलेगा।
• समस्या यह है कि ऐसे मजबूरी वाले संन्यासी असली साधुओं की छवि खराब कर देते हैं। जनता को लगता है कि हर बाबा ढोंगी है, जबकि सच में कुछ लोग युवावस्था से ही तप और संयम में लगे होते हैं।
⭐ सीधी बात — जो त्याग जवान रहते करते हो, वही असली त्याग है।
वरना यह तो वैसा ही हुआ कि दूध, मलाई, घी, सब खुद पी लिया और खाली मटकी भगवान को चढ़ा दी।
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✍️ आलोक कौशिक
(तंत्रज्ञ एवं साहित्यकार)