रात-दिन रोने से भी कुछ बात बन पाई कहाँ - संदीप ठाकुर
रात-दिन रोने से भी कुछ बात बन पाई कहाँ
ख़ूब बरसीं आंँख पर बरसात बन पाई कहाँ
चांद तारे पेड़ दरिया सब बनाने ही पड़े
कैनवस पे सिर्फ काली रात बन पाई कहाँ
ढल न पाई सोच जब तक मिट्टी में कुम्हार की
चाक तो घूमा बहुत पर बात बन पाई कहाँ
देख कर मैं भी तुझे अन-देखा कर देता मगर
फिर मिलन की सूरत-ए-हालात बन पाई कहाँ
आंख से गिरते हुए आंसू पिरोए रात भर
पर तिरे लायक कोई सौग़ात बन पाई कहां
इक दिखावा थी मुहब्बत बस दिखावा ही रही
झूठी हमदर्दी कभी जज़्बात बन पाई कहां
पड़ गईं सब चाल उल्टी प्यार की शतरंज में
मेरे दिल की कोई भी शह मात बन पाई कहाँ