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8 Aug 2025 · 3 min read

तंत्र विद्या एवं तांत्रिक पद्धति में पूर्णिमा

तांत्रिक साधना में अमावस्या जितनी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है, उतनी ही – बल्कि कुछ विधाओं में उससे भी अधिक – पूर्णिमा की भूमिका गूढ़, शक्तिशाली और विविधतापूर्ण है। पूर्णिमा का चंद्रपूर्ण तेज और उसकी चंद्र-ऊर्जा, तंत्र विद्या के कई स्तरों में अद्वितीय महत्व रखती है। इसे गहराई और विस्तार से समझिए –

1. पूर्णिमा का आध्यात्मिक व ऊर्जात्मक महत्त्व :

पूर्णिमा की रात चंद्रमा अपनी पूर्ण कलाओं में रहता है, और यही कारण है कि इस दिन चंद्रमणि तत्त्व यानी सामाजिक, मानसिक, भावनात्मक और सूक्ष्म ऊर्जा अपने चरम पर होती है। तंत्र शास्त्र मानता है कि –

चंद्र मन का अधिपति है, और

पूर्णिमा पर मन की कंपन-तरंगें तेज और संवेदनशील हो जाती हैं।

तांत्रिक दृष्टि से यह संवेदनशीलता मंत्र-संस्कार, ऊर्जा-संचार और सिद्धि प्राप्ति के लिए सबसे उपयुक्त स्थिति है।

2. तांत्रिक वर्गीकरण में पूर्णिमा का स्थान :

तंत्र विद्या में चंद्र-चक्र को दो भागों में बांटा गया है –

1. शुक्ल पक्ष (अमावस्या से पूर्णिमा तक) – ऊर्जा का वृद्धि चरण

2. कृष्ण पक्ष (पूर्णिमा से अमावस्या तक) – ऊर्जा का लय चरण

पूर्णिमा शुक्ल पक्ष का परमोत्कर्ष बिंदु है।

दक्षिण मार्ग (वामाचार सहित) के साधक इस दिन मंत्र-अभिषेक, यंत्र-प्राणप्रतिष्ठा और मोहिनी/आकर्षण साधनाएं करते हैं।

वाम मार्ग के कुछ उच्च कोटि के साधक पूर्णिमा को शक्ति-उपासना के चरम रूप में ग्रहण करते हैं, जहाँ देवी की कृपा और तेज को अपने सुषुम्ना मार्ग में प्रवाहित करते हैं।

3. पूर्णिमा और शक्तिपीठ साधना :

कई शक्तिपीठों में – जैसे कामाख्या, तारा पीठ, त्रिपुरसुंदरी पीठ – पूर्णिमा की रात को विशेष रात्रि-जागरण और गुप्त अनुष्ठान होते हैं।

चंद्र-ऊर्जा के साथ शक्ति-तत्व का मिलन साधक के आज्ञा और सहस्रार चक्र को सक्रिय करता है।

यह रात शक्ति-अवतरण (शक्ति का साधक के भीतर अवतरण) के लिए श्रेष्ठ मानी जाती है।

4. पूर्णिमा पर विशेष तांत्रिक प्रयोग :

(१) मोहिनी/आकर्षण साधना
(२) धन-प्राप्ति साधना
(३) रोग निवारण
(४) सिद्धि-साधना
(५) शक्ति-आवाहन

5. पूर्णिमा का मनोवैज्ञानिक प्रभाव तांत्रिक दृष्टि से :

तांत्रिक शास्त्र कहता है – “यथा चंद्रः मनोवृत्तिं नियंत्रयति”
साधक चंद्रशक्ति को नियंत्रित कर आत्मशक्ति में बदल देता है।

पूर्णिमा की रात साधक का मन प्रबल, कल्पना तीव्र और संवेदनशीलता चरम पर होती है। इसलिए:

यदि साधक अनुष्ठान कर रहा हो → मंत्र की तरंगें तेजी से सूक्ष्म लोक में प्रवेश करती हैं।

यदि साधक असंयमित हो → चंद्र की तीव्रता से मानसिक विचलन भी संभव है, इसीलिए गुरु की देखरेख आवश्यक है।

6. पूर्णिमा और देवी/चंद्र देवता का संबंध :

तांत्रिक पद्धति में चंद्र को सोमदेव, गौरीपति और श्रीविद्या का सहचर माना गया है।

श्रीविद्या उपासना में पूर्णिमा को त्रिपुरसुंदरी तिथि कहा जाता है।

वामाचार में इसे रात्रिकालीन रतिक्रिया और ध्यान के माध्यम से शक्ति-संपर्क का साधन भी माना गया है।

7. पूर्णिमा पर तांत्रिक सावधानियां :

1. अत्यधिक ऊर्जा – साधक को मानसिक संतुलन बनाए रखना जरूरी।

2. शुद्ध आहार-विहार – मांस-मदिरा का उपयोग केवल वाममार्गीय विधि में, वह भी गुरु आदेश पर।

3. अभिचार टालना – पूर्णिमा पर किया गया अभिचार (काला तंत्र) कई गुना प्रभावी और उल्टा भी पड़ सकता है।

⭐ निष्कर्ष :

पूर्णिमा तंत्र विद्या में सिर्फ चंद्र-दर्शन की रात नहीं है, बल्कि यह शक्ति, मन और चेतना के एक विशेष संगम की रात्रि है।

यह साधक को मानसिक विस्तार, शक्ति संचरण और मंत्र-सिद्धि के चरम अवसर प्रदान करती है।

बिना गुरु मार्गदर्शन के, यह शक्ति लाभ के बजाय हानि भी कर सकती है।
…………………………………………….

✍️ आलोक कौशिक

(तंत्रज्ञ एवं साहित्यकार)

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