कुण्डलिया छंद
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परवाने आने लगे, फिर भी किया न चेत ।
अब बैठा पछता रहा, चुगा चिड़ी ने खेत ।।
चुगा चिड़ी ने खेत, बचे दाने अब थोड़े।
इनको भी चुग जाय, उसी ने जो हैं छोड़े
कहे ‘ज्योति’ कर चेत, न कर अब और बहाने।
बुझ जाता जब दीप, नहीं आते परवाने ।।
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राधे…राधे…!
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महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा !