"अंधभक्ति का अंधेरा"
“अंधभक्ति का अंधेरा”
भीड़ में ढूँढ़ते हैं खुदा को,जहाँ सांसें भी बिक जाती हैं,
जहाँ भगदड़ में मरती आशा,फिर भी आरती गूंज जाती है।।
मंदिरों में मुक्ति बिके है,डालर, सोना, चढ़ावे में,
बाबा बोले – “सच्चा भक्त बनो”,और तिजोरी भरे हवाले में।।
माँ की सेवा छोड़ के आए,पिता की आँखें तरस गईं,
महादेव के धाम की खातिर,घर की लक्ष्मी बरस गई।।
धूप में तपे थे दो बच्चे,पानी को तरसती माँ मरी,
पर कथा नहीं रुकने दी,”यह तो महादेव की मर्ज़ी रही!”।
जो खुद को कहते हैं “प्रवचनकर्ता”,वो अब करोड़ों के मालिक हैं,
राम-नाम के धंधे में,धोखे की बड़ी तालीम है।।
शब्दों से खेलते हैं ये संत,भीतर से होते हैं निर्मम,
इनके धाम में मुक्ति नहीं,बस अंधकार है, और भ्रम।।
जो भगवान को पाना चाहे,वो माँ की थाली में देखे,
बच्चे की मुस्कान में देखे,बूढ़े पिता की लाठी में देखे।।
भीड़ नहीं, बुद्धि अपनाओ,ईश्वर को खुद में जगाओ,
धर्म वही जो विवेक से हो,वरना अंधभक्ति मिट्टी में मिलाओ।।