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7 Aug 2025 · 1 min read

मनुख मनुख के डँसै छै”

✍️ श्रीहर्ष

मनुख…
मनुख के डँसै छै…
साँप तऽ बिच्चारू फुफकारि के डँसै छै —
ई तँ हँसि के काटै छै।

“डँसै छै… हँसि के डँसै छै…”

हम तँ सोचने रही —
धर्म कहै छै —सहेलौं,पाँजि पकड़ि के बाँचि लेलौं!
मुदा धर्म केर गप्प कहै बला —
हमरे घर में — खंजर गाड़ि देलक!

(हँपैत-हँपैत)
हम की बिगाड़ने रहियै?
हम तँ बस खेत जोतनाइ चाहने रही…
बेटी के स्कूल पठेना चाहने रही…
ओकरो डर लागै छै?

डर!
ई दुनिया के सबसँ पैघ हथियार छै —
ओही डर से पचास बरससँ गरीब — गरीबे छै।
आ राजा — महल में हँसै छै।

“राजा हँसै छै, रोटी कनै छै —
बेटी स्कूल नै, डर से घर में सटै छै!”

सहर में सभ्यता छै?
ओतय तँ मोबाइल में भगवान छै,
आ रियलिटी में आदमी —
अप्पन जूताक साइज धरि ना बुझे!

“हमर सपना मुरझा गेलै…
आ जे सभ सत्ता पर बैसल छै —
ओ हमर गप्प सुनै बला नै छै।”

हमर गीत — अब पियास छै,
हमर स्वर — अब लहास छै।
ने कोय तुलसी हय, ने पीपर —
ने कोय सोनचिरैया —
अब सिर्फ़ धुआँ हय आ जहर।

डँसै छै… हँसि के डँसै छै!”
“राजा हँसै छै, रोटी कनै छै…”
“ई झूठक खेती अब नै चलतौ!”
“अब कविता नै — क्रांति के तान सँ!”

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