"ख़ुद को चिट्ठी"
“ख़ुद को चिट्ठी”
कभी खुद से मिल के बातें करूँ मैं,
जो चुप हूँ वही दास्ताँ लिख सकूँ मैं।
लिखूँ एक चिट्ठी मैं अपनी तरफ़ से,
ज़रा अपनी आँखों में झाँक सकूँ मैं।
कहूँ — “तू भी इंसान है, थकता होगा,”
चलो आज खुद को ही सज़दा करूँ मैं।
जो टूटा था कल, वो संभलता है आज,
उसी पर कोई नई सुबह रख दूँ मैं।
हर इक दर्द को मैंने छुपा रखा है,
कभी इनसे पर्दा हटाकर देखूँ मैं।
ना उम्मीदियों से भरी ज़िंदगी है,
कभी इन ख़्वाबों से फिर बात करूँ मैं।
मैं ही सवाल और मैं ही जवाब,
ख़ुदा बन के खुद को ही पूछूँ मैं।