#आज_प्रसंगवश
#आज_प्रसंगवश
राष्ट्रीय पर्वतारोहण दिवस पर एक विशेष आलेख।
#पर्वतारोही तो #आप और #हम भी।
*(प्रणय प्रभात)”
पता चला है कि आज 01 अगस्त को “राष्ट्रीय पर्वतारोहण दिवस” है। ऐसा बताया जाता है कि यह दिन एक लेखक के बेटे बॉबी मैथ्यूज और उनके दोस्त जोश मैडिगन के सम्मान में स्थापित किया गया था, जिन्होंने न्यूयॉर्क राज्य के एडिरोंडैक पर्वत की 46 ऊँची चोटियों पर सफलतापूर्वक चढ़ाई की थी। कब और किन परिस्थितियों में की, मुझे नहीं पता। पता करने की कोई आवश्यकता भी नहीं शायद।
उक्त मान्यता को स्वीकार करने की हम भारतीयों को किसी तरह की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि भारत मां के तमाम सपूतों व साहसी बेटियों ने देश के लगभग सभी पर्वतों की उच्च चोटियों से लेकर हिमालय के सर्वोच्च शिखर माउंट एवरेस्ट तक अपनी उपस्थिति अंकित कर तिरंगा लहराया है।
इस दिवस विशेष पर हम एवरेस्ट विजेता तेनजिंग शेरपा व बछेंद्री पाल से लेकर कल तक पर्वत शिखरों पर पहुंचने व इतिहास में अपना नाम इस क्षेत्र में सुनहरे अक्षरों में अंकित करने वाले प्रत्येक पर्वतारोही को उसके पराक्रम के लिए बधाई व सम्मान दे सकते हैं।
आज के इस दिवस के लिए हमारी ओर से #बधाई हमारे अपने जिले के उस #स्काउट्स_दल के संबद्ध सदस्यों के लिए भी, जिन्होंने वर्ष 2020 में उत्तराखंड की एक चोटी पर चढ़ कर जिले का नाम रोशन किया था।
इन सबसे परे एक बधाई अपने व अपने जैसे उन तमाम कल्पनाशील पर्वतारोहियों के लिए भी, जो एक दिन में न जाने कितनी चोटियों की ओर बढ़ते हैं। ठीक एक पर्वतारोही की तरह। पर्वत बही, भावों के, भावनाओं के, कल्पनाओं के।
कभी उमंग, उत्साह व हर्षोल्लास के साथ। कभी उद्वेग, विषाद, अवसाद के साथ। मंतव्य बस एक ही। हर हालत में, हर क़ीमत पर ऊंचाई पाना। उसके लिए चाहे हृदय को कष्ट उठाना पड़े या फिर मानस चोटिल हो। पग पग पर सीख लेना, अनुभव पाना और दुनियां को बताना भी कोई छोटी बात नहीं। फिसलने और गिरने का जोखिम पर्वतारोहण में ही नहीं सोच के पहाड़ चढ़ने में भी होता है।
अंतर बस इतना सा है कि वहां गिरने पर सन्नाटा छा जाता है, यहां कोलाहल होता है। वहां चीख घुट कर रह जाती है, यहां आर्तनाद बन कर गूंजती है। वहां अपनी ध्वनि प्रतिध्वनि बन कर कानों में आतीं है, यहां गीत, कविता, नज़्म, ग़ज़ल बन कर दुनियां के कानों तक जातीं है। वहां सामानों का बोझ पीठ पर होता है, तो यहां विचारों का दिल और दिमाग़ पर।
ठोकर खाकर, फिसल कर या लड़खड़ा कर औंधे मुंह वो भी गिरते हैं, हम भी। वो पहाड़ के नीचे तलहटी में, हम तंद्रा से चेतना की गोद में। उनके पहाड़ के नीचे ऊंट आकर अपनी ऊंचाई के भ्रम से उबरते हैं, तो हमारे विचारों के ऊंट अभावों की मरुधरा से लेकर संपन्नता के ऊंचे दुर्ग की खड़ी चढ़ाई तक आनंद से विचरते या चढ़ते देखे जा सकते हैं।
वो योजना बनाते हैं, दिन चुनते हैं फिर चढ़ना आरंभ करते हैं। साल, दो पांच दस साल में एकाध बार। आप और हम आए दिन चढ़ते हैं। कभी हसरतों, कभी चाहतों, कभी ख्वाहिशों के ऊंचे ऊंचे पहाड़ों पर। आकांक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं के ऊंचे नीचे, छोटे बड़े पर्वत चढ़ते ही तो बीतती है हमारी उम्र। अभिप्राय बस इतना सा है कि यह जीवन पर्वतारोहण ही है। लेख गंभीर होता जा रहा है ना? थोड़ा सा मुड़ते हैं एक नए गलियारे की ओर।
सच यह भीं है कि पर्वतारोही चढ़ते है, हम चढ़ने के साथ साथ चढ़ाते भीं हैं। किसी को महिमा मंडित कर पहाड़ पर, तो किसी को चने के झाड़ पर। प्रमाण दें ही दिया है, यह सब लिख कर। अब पात्रता व दक्षता आपकी। आस के पहाड़ पर चढ़ते हैं या भड़ास के झाड़ पर। बढ़ते रहें, चढ़ते रहें, उतरते रहें। क्रिया ही जीवन है और कुछ न कुछ करते रहना जीवंतता। बनाए रखें जीवट और बने रहें एक पर्वतारोही। अधोमुखी नहीं, सदैव ऊर्ध्वमुखी। जय राम जी की।।
संपादक
न्यूज़&व्यूज
(मध्यप्रदेश)