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31 Jul 2025 · 3 min read

प्रेम यात्रा

जब भी “मैं”
जीवन की आपाधापी, भागदौड़, होड़, और भगदड़ से थक जाता हूँ,
शब्द खोखले लगने लगते हैं,
अन्तर्मन की बेचैनी
एक अज्ञात दिशा की ओर मुझे खींचने लगती है,
तब मैं प्रायः-
पर्वतों, नदियों, बहते झरनो,
सागर की उठती
उफान खाती लहरों की ओर देखता हूँ,
वृक्षों की छाया खोजता है,
तरंगिणी की धारा में
कुछ खो देने की चाह रखता हूँ…

उस क्षण यह आकांक्षा, यह अभिलाषा
केवल थकान से उपजी पलायन नहीं होती,
बल्कि उस प्राचीन आह्वान की गूंज होती है
जो मेरे अस्तित्व,
मेरे अंतर्मन की,
विद्यमानता की जड़ों से आती है

“लौट आओ”….
जहाँ से चले थे,
वहीँ लौट आओ….

प्रकृति, प्रवृत्ति, मनोवृत्ति कोई दृश्य नहीं,
कोई आमोद-प्रमोद,नहीं…
वह मेरे भीतर की वही प्रतिध्वनि है
जो सभ्यता, संस्कृति, शिष्टाचार, की भित्ति में कैद होकर मौन हो गई थी…

जब भी मैं एकाकी किसी
अरण्य, कानन, वन में उतरता हूँ,
किसी खेतों की छोटी पगडंडी पर चलता हूँ
जहाँ न कोई नाद,
न कोई मंज़िल….
वहाँ धीरे-धीरे कुछ खुलने लगता है…

प्रारम्भ में यह डर होता है,
“फिर मौन”
“अन्तर्मन निरुत्तर”
पुनः-
वह असामान्य, अद्भुत सी बात होती है

जैसे कोई मुझे देख रहा है बिना आंखों के,
जैसे कोई बात कर रहा है, बिना शब्दों के….
यह वही क्षण होता है,
जब मेेेेरी बाह्य प्रकृति,
मेरे भीतर की चेतना से मिलती है…
और यहीं से आरम्भ होती है
“प्रेम यात्रा”

“प्रेम यात्रा” कोई प्रयास नहीं,
कोई संकल्प नहीं,
यह एक अनुमति है…
खुद को सुनने की,
खुद को मिटाने की,

“प्रेम यात्रा” वह दर्पण है
जिसमें हम बिना मुखौटे के
स्वयं को देख सकते हैं…
वहाँ न कोई धर्म, न कोई वंश,
न कोई कुल, न कोई मत…
केवल उपस्थिति है
“प्रेम” की
शुद्ध, पारदर्शी, स्पष्ट, स्वच्छ
“प्रेम”

इस “प्रेम यात्रा” में हम चल रहे होते हैं,
लेकिन जानते नहीं कि हम चल रहे हैं,
समय हमारे पीछे चलता है,
और हम भविष्य की ओर भागते हैं…
लेकिन वन, कानन, पर्वतों के मध्य,
किसी पवित्र, विशुद्ध तरंगिणी के तट पर
एक क्षण इतना फैला हुआ लगता है कि उसमें पूरा जीवन समा जाए,
अन्तर्मन का कोलाहल धीरे-धीरे मिटता है
और वह जगह खाली हो जाती है
जहाँ पहले ‘मैं’ बैठा था…
उस खाली जगह में कुछ और उतरता है…
कुछ ऐसा
जिसे हम “प्रेम” कह सकते हैं,
“आत्मा” कह सकते हैं,
“चेतना” कह सकते हैं
या बस “मौन”….

यह “प्रेम यात्रा”
कुछ सिखाती नहीं, दिखाती नहीं,
न कोई उपदेश, न कोई ग्रंथ,
फिर भी सब कुछ स्पष्ट…
जैसे:-
एक वृक्ष वर्षों से खड़ा हो मौन,
बिना किसी आपत्ति,
बिना किसी आकांक्षा के
और उसमें जीवन की गहराई है…

नदी बहती रहती है, बार-बार टूटती है, शिलाओं से टकराती है, परन्तु कभी रुकती नहीं,
हमें त्याग और प्रवाह का पाठ पढ़ा देती है…

हर पत्ता, हर कण,
एक प्राचीन ऋषि की तरह प्रतीत होता है…
जिसे शब्दों की आवश्यकता नहीं,
क्योंकि उसकी उपस्थिति ही पर्याप्त है….

मनुष्य जब प्रेम यात्रा में उतरता है,
तो वह मर्यादित बनता है,
वह सरलता, वह मौन,
वह अनजानी प्रार्थना,
सब कुछ धीरे-धीरे
हमारे अंदर लौट आता है…

उस पगडंडी पर, जहाँ कोई नाम नहीं,
उस झील के किनारे, जहाँ कोई दिशा नहीं,
व्यक्ति अपने अन्तर्मन में उतरने लगता है…

यह प्रेम यात्रा कहीं जाना नहीं है,
बल्कि वहीं पहुँचना है,
जहाँ से हम बिछड़े थे…
यह अन्तर्मन का प्रेम आत्मज्ञान
किसी ग्रंथ से नहीं,
किसी शिक्षक से नहीं:-
बल्कि एक तितली की उड़ान,
एक पुराने वृक्ष की छाल,
एक झरने की आवाज़
कल-कल करती सरिता से भी मिल सकता है, अगर देखने वाली दृष्टि मौन हो जाए…

और तब समझ आता है कि:-

खोज किसी ऊँचे सत्य की नहीं थी…
खोज केवल इतनी थी,
कि हम फिर से सीखें कैसे वृक्ष की तरह खड़ा रहा जाए,
कैसे नदी की तरह बहा जाए,
और कैसे “सुनील” (सुन्दर आकाश)
की तरह सब कुछ समेट लिया जाए
बिना किसी आग्रह, बिना किसी विरोध…

यह “प्रेम यात्रा” कभी समाप्त नहीं होती,
क्योंकि यह कोई मार्ग नहीं,
कोई लक्ष्य, और गंतव्य नहीं…

बल्कि अन्तर्मन की मौन दृष्टि है
और वह दृष्टि प्रकृति के मार्ग पर ही मिलती है…

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