मैं हूँ ही क्या जो परिचय दूँ।
हूँ एक मुसाफिर अदना सा
जीवन लगता मुझे सपना सा
कोई कर्म किया न कभी ऐसा
जिससे कुछ कद्र मेरा बढ़ता
तब कैसे किसी पर दोष मढूं।
मैं हूँ ही ————————
अशक्ततता तन में आने लगा
नैराष्य का भाव जगाने लगा
अब व्याधि बादल छाने को है
अब जीवन संध्या आने को है
तब खुद को कैसे अजय कहूं ।
मैं हूँ ही ————-
सत्य वचन से रूठ जाते अपने
छल-छद्म से दिल लगता दुखने
भले लोग जो चाहें कहें इसको
कुछ फर्क नहीं पड़ता मुझको
तब क्यों किसी का अनय सहूँ।
मैं हूँ क्या —————–
कीर्ति रश्मि कभी फैला न सका
विजय ध्वज कभी फहरा न सका
संतोष मगर है बस इतना मुझको
गिरा खुद पर न गिराया किसी को
इसे किस-किस से कहता मैं फ़िरूँ
मैं हूँ ही क्या ——————–
निज का विष-बाण सहा प्रतिपल
संघर्ष निरत नित रहा मैं अविरल
प्रयास किया ज्ञान- घट भरने की
सोचा न कभी धन- अर्जन की
तब किस घर को मैं निलय कहूँ।
मैं हूँ ही क्या———————
जन-जन की बातें लिखता ही रहा
अंदर-बाहर से दिल दुखता ही रहा
कुछ कहा-ऐसा मत तुम लिखा करो
कलिकाल है धूर्तता तुम सिखा करो
तब इस द्वंद्व में क्या मैं निर्णय लूं।
मैं हूँ ही क्या ———————