ये बारिश... और ये पहाड़
उड़ते ख्वाबों जैसे बादल,
बहती भावनाओं की नदियाँ —
जब ठहर जाती हैं पलभर को,
तो पुकारते हैं मुझे —
ये बारिश… और ये पहाड़।
भीगती स्मृतियाँ उसकी,
चुपचाप खोल देती हैं
मन के अनजाने किवाड़।
और मन —
जैसे कोई मौन झंझावात,
धीरे-धीरे तोड़ता है भीतर से।
अपनी चाहतों की छाया में,
ख्यालों की दुनिया में,
बिखरा पड़ा यह मन —
बूंदों की हल्की संवेदनाओं में
धीरे-धीरे भीगने लगता है।
फिर मुझे सँवारने लगते हैं —
ये बारिश… और ये पहाड़।
✍️ दुष्यंत कुमार पटेल