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30 Jul 2025 · 1 min read

ये बारिश... और ये पहाड़

उड़ते ख्वाबों जैसे बादल,
बहती भावनाओं की नदियाँ —
जब ठहर जाती हैं पलभर को,
तो पुकारते हैं मुझे —
ये बारिश… और ये पहाड़।

भीगती स्मृतियाँ उसकी,
चुपचाप खोल देती हैं
मन के अनजाने किवाड़।
और मन —
जैसे कोई मौन झंझावात,
धीरे-धीरे तोड़ता है भीतर से।

अपनी चाहतों की छाया में,
ख्यालों की दुनिया में,
बिखरा पड़ा यह मन —
बूंदों की हल्की संवेदनाओं में
धीरे-धीरे भीगने लगता है।

फिर मुझे सँवारने लगते हैं —
ये बारिश… और ये पहाड़।
✍️ दुष्यंत कुमार पटेल

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