दीपक फिर जला है
चूल्हे की आँच, पिता की थकन,
माँ के हाथों की जलन,
इन सबमें पला-बढ़ा मैं,
निम्नवर्गीय घर का पहला सपना।
सुबकती रातें, बुझे से दिन,
स्कूल के बस्ते में थी चुप्पी की तन्हाई।
कभी किताबें बोझ लगती थीं,
कभी पन्ने आसमान बन जाते थे।
पिता चौकीदारी करते, रातें जागते,
आँखों में नींद नहीं, ज़िम्मेदारी पालते।
घर लौटते तो थकन ही साथ लाते,
पर चेहरे पे नहीं होती कोई शिक़ायत।
माँ सुबह से निकल जाती चौके में,
दूसरों के घरों में रोटियाँ सेंकती।
धुएं के बीच, परायों के स्वाद में,
अपने बच्चों का भविष्य गूँथती।
मैं था वो जो कक्षा में चमका करता,
हर सवाल का उत्तर तुरंत दे देता।
“बड़ा आदमी बनेगा हमारा बेटा”—
कहते थे वो पड़ोसी, सुनते थे हम चुपचाप।
फिर एक मोड़ आया जीवन में,
जहाँ सपनों में दरारें पड़ने लगीं।
घर के किराए, माँ की दवा,
छोटे भाई की फीस, और पापा की जद्दोजहद।
अब किताब से ज़्यादा जरूरी लगती रसोई,
कभी झाड़ू, कभी पानी भरने की बारी।
कंधे पर बस्ता और जिम्मेदारी दोनों,
दिल करता रो दूँ, पर हिम्मत कहाँ हारूं।
कभी-कभी लगता, मैं थक चुका हूँ,
कि शायद पढ़ाई अब दूर की बात है।
मन भटकने लगा मोबाइल की दुनिया में,
और लक्ष्य धुंधला, जैसे धूप में धुआं।
पर एक शाम माँ बैठी मेरे पास,
थकी हथेलियों से सिर सहलाया।
बोली, “तेरी किताबें ही हैं हमारी उम्मीद,”
उस एक वाक्य ने जैसे जीवन लौ जलाया।
अब फिर किताबों से बात करता हूँ,
रातों की नींद छोड़, उजाले बुनता हूँ।
जो सपना मेरा था, अब परिवार का है,
मैं फिर से दीपक बना हूँ, अंधेरे का दुश्मन।
जिम्मेदारियाँ हैं, पर अब मैं कमज़ोर नहीं,
राह कठिन है, पर अब मैं रुकने वाला नहीं।
हर पसीने की बूँद अब मंत्र बन चुकी,
मैं चल पड़ा हूँ, फिर से लक्ष्य की ओर।