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11 Jul 2025 · 1 min read

मुझे डर लगता है !

मुझे डर लगता है कि
मैं इस शहर की भीड़ में कहीं खो न जाऊं ,
अपने अस्तित्व को खोकर खुद को ढूंढता न रह जाऊं,

यहां मेरी आवाज़ दब कर रह गई है ,
इस भीड़ के शोर में कहीं ग़ुम हो गई है ,

बहुत कोशिश करने पर भी
मुखर नहीं हो पाता हूं ,
क्योंकि कुछ कहने से पहले ही
चुप करा दिया जाता हूं ,

शायद मेरी स्वतंत्र अभिव्यक्ति लोगों को
बुरी लगती है ,
यहां तो भीड़ की मनोवृत्ति और सोच
की ही चलती है ,

प्रबुद्ध वर्ग चुप्पी साधकर
मूकदर्शक बनकर रह गया है ,
अन्याय एवं अत्याचार सहना
अब नियति बन गया है ,

व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ उठाना
देशद्रोह बन गया है,
मानसिक एवं आर्थिक गुलामी की जंजीरों में
आम आदमी जकड़ा जा रहा है ,

असहाय किंकर्तव्यविमूढ़ सा
किसी दैवीय चमत्कार की आशा में,
सब कुछ सहता जा रहा है ,

मुझे डर लगता है कि
मैं भी स्पंदनहीन अमानवीय होकर ,
अपनी व्यक्तिगत सोच को खोकर ,
इस भीड़ का हिस्सा बनकर न रह जाऊं।

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