बंदरों का लोकतंत्र
नेता जी बोले, “देश बदलना है,
हर गली-मोहल्ले को स्वर्ग बनाना है।”
पर जनता बोली, “पहले बताओ,
कितना लगेगा? और हमें क्या खाना है?”
रेल चली वादों की, पटरी टूटी निकली,
‘हर घर में रोजगार’ की गाड़ी फिसली।
भ्रष्टाचार ने पहना सूट-बूट,
और सच बोलने वाला घोषित हुआ कपूत।
टीवी में चर्चा — “देश कहाँ जा रहा है?”
सोशल मीडिया पर ज्ञान बहा जा रहा है।
ग्रामीण भूखा है, शहरी बेहाल है,
पर ‘फिल्टर’ वाला राष्ट्र अभिमानाल है।
गौ माता की जय बोलो, चाहे सड़क में भूखी हो,
और शिक्षा? अरे! वो तो अब कोचिंग सेंटर की दासी हो।
गुरु को यूट्यूब ने निगल लिया,
और विद्यार्थी को ‘रील्स’ ने पागल किया।
नेता बोले— “अब डिजिटल इंडिया है भाई!”
पर गरीब बोला— “मेरे पास अभी भी चार्जर नहीं आई!”
डाटा तो सस्ता है, पर दिमाग कहाँ है?
अख़बार भी अब तो बिकाऊ गवाह है।
दहेज में मांगा “लड़की नहीं, कार दो,”
और प्रेमी बोला— “बस थोड़ी-सी और वार दो!”
महिला सुरक्षा पर भाषण लाजवाब हैं,
पर सुनसान सड़कें अब भी खौफनाक हैं जनाब!
गरीबी हटाने का नारा पुराना हो गया,
बस गरीब हटते-हटते गाँव से शहर आ गया।
झोपड़ी गिरती है, मॉल खड़े होते हैं,
और नेता ‘विकास’ के पोस्टर में छप जाते हैं।
अब देश नहीं चलता संविधान से,
यहाँ फैसले होते हैं खानदान से।
लोकतंत्र अब जश्न नहीं, तमाशा बन गया है,
और हर नागरिक — एक मूक दर्शक बन गया है।
अब सवाल पूछना भी अपराध ठहरता है,
और सच बोलना— गद्दारी कहलाता है।
ये बंदरों का लोकतंत्र है मेरे भाई,
जहाँ केले लुट रहे हैं — और जनता ताली बजा रही है।