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9 Jul 2025 · 1 min read

नीरव नभ के पार

नीरव नभ के पार चला, एकांत पथिक विचार,
छाया-प्रकाश के द्वंद्व में, खोज रहा सत्कार।

नभ न सीमित, न साक्ष्य वहाँ, न कोई काल-प्रवाह,
मौन तरंगों में डूबा था, स्व-अस्तित्व की राह।

मन पतंग-सा उड़ता जाता, वासनाओं से मुक्त,
शून्य में उठते प्रश्न जहाँ, उत्तर भी थे मौन।

न दीप जले, न मंत्र बजे, न कोई ग्रंथों की छाँव,
बस मौन में बिखरी थी केवल, चेतना की ठाँव।

गूंजा सहसा अंतर में—”जहाँ मिटे ‘मैं’ का भार,
वहीं मिलेगा ब्रह्म-स्वरूप, नश्वरता के पार!”

क्षण में टूटे भ्रम के बंधन, मिटा स्व का अहंकार,
जैसे सागर खुद को पा ले, अपनी ही मौन पुकार।

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