नीरव नभ के पार
नीरव नभ के पार चला, एकांत पथिक विचार,
छाया-प्रकाश के द्वंद्व में, खोज रहा सत्कार।
नभ न सीमित, न साक्ष्य वहाँ, न कोई काल-प्रवाह,
मौन तरंगों में डूबा था, स्व-अस्तित्व की राह।
मन पतंग-सा उड़ता जाता, वासनाओं से मुक्त,
शून्य में उठते प्रश्न जहाँ, उत्तर भी थे मौन।
न दीप जले, न मंत्र बजे, न कोई ग्रंथों की छाँव,
बस मौन में बिखरी थी केवल, चेतना की ठाँव।
गूंजा सहसा अंतर में—”जहाँ मिटे ‘मैं’ का भार,
वहीं मिलेगा ब्रह्म-स्वरूप, नश्वरता के पार!”
क्षण में टूटे भ्रम के बंधन, मिटा स्व का अहंकार,
जैसे सागर खुद को पा ले, अपनी ही मौन पुकार।