तेरा अचूक संधान
///तेरा अचूक संधान///
तेरे चितवन में जग की आस,
तेरे हास में विश्व विकास।
दृष्टि है मधुमय परम प्रकाश,
तुझमें है देवत्व का वास।।
मुझ में भरी क्षुधा अपार,
तुम हो तृप्ति का आगार।
दे दो मुझको यह अंबार,
मिले हमें ही यह सद्-सार।।
अखिल शांति की मौन लता,
मृदु फूलों का मृदुतर हास।
तोड़ लूं क्या मैं यह मधु पुष्प,
जगा दो ना मुझ में उल्लास।।
दुष्ट प्रभंजन जग मन रंजन,
फुल्ल सत्वरी चारु निरंतन।
खल समुदल की मारणहारी,
मुझे पिला दो प्रेम चिरंतन।।
तुम जगती का मधुमास,
भू प्रेमोज्जवल उच्छवास।
कैसे होगा प्रिय यह प्रवास,
जाग गई अंतरतम में आस।।
पाएं प्रेम प्रणय अविराम,
हृदय तल में उठता उद्दाम।
तुम ही जीवन में सुरधाम,
चलें विहंगों का ले आयाम।।
सुनी है गाथ प्रणय की प्रात,
चुरा ना ले कोई विकल अज्ञात।
सुना दो ना अब स्वर गान,
कर दो उर का उर से संपात।।
चाह विनय भरी प्रेम तुहिन,
दिख रहा यह कैसा पुलिन।
तेरा अचूक वह शर संधान,
देख रहा क्या रहस्य महीन।।
यह शुचि अंतर का थाल,
खुले पड़े हैं प्रिय प्रवाल।
रखो सहेज वह अनमोल,
श्रृंग शिखर के प्रभा काल।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)