“बेरोज़गारी का दर्द”
सपनों की आंखों में जब चमक लिए निकले,
डिग्रियों की झोली में उम्मीदें हम पले।
कहा गया था – “पढ़ो, सफलता पाओगे,”
अब दर-दर भटक रहे, किसे बताओगे?
इंटरव्यू की कतारें हैं लम्बी बहुत,
योग्यता पर भारी है सिफ़ारिश की रफ़्त।
पिता की आंखों में सवालों की धार है,
बेटा घर बैठा है, ये सब पर भार है
मां के सपनों की अब परछाईं हूँ मैं,
समाज की नजरों में बस शरमाई हूँ मैं।
मित्रों की शादी, घर, गाड़ी की बात,
हम तो अब भी ढूंढें कोई नौकरी की जात
मोबाइल में रोज़ नौकरी ढूंढ़ता हूँ,
हर ना में एक और सपना कुचलता हूँ।
कभी पेपर आउट, तो कभी सीट घट गई,
उम्मीद थी नौकरी की, वो भी रट गई।
नेताओं ने वादे तो बहुत किए थे,
पर हकीकत में सिर्फ़ नारे ही दिए थे।
हर चौक पर खड़े हैं, डिग्री वाले हाथ में,
फिर भी मज़दूरी करते हैं, पेट की बात में।
कभी सोचता हूँ – क्या यही है मंज़िल?
या बेरोज़गारी बन गई है पहचान की सिल?
मगर अब भी दिल में एक आस बाकी है,
कभी तो बदलेगी ये बेरहम गाथा भी।
अब भी दिल में जलता है इक उजाला,
कि मेहनत से बदलेगा किस्मत का हाला।