आइना और मैं (ग़ज़ल)
क्यों तुम आइना से मुकरे हो,
झूठी दुनिया में क्यों जीते हो?”
तुम तो शायद बावले हो गए हो
ग़ैर से खुद का पता पूछते हो l
मैं दरिया सा तुमसे मिलता रहा
क्यों तुम समुंदर सा खारे हो
ऐसा कोई कहां मिलता है अब
जिसका यहां सिर्फ़ एक चेहरे हो
तुमको देख के गिरगिट हैराँ हैं”
“यूं मक़सद से रंग बदलते हो”
वो शख्स हवा-सा, नदी-सा है
जिसकी तलब में तुम ठहरे हो
खिलते बागों को उजाड़ कर
हर तितली के पीछे भागते हो
वो चाँद किसी एक का थोड़ी है
जिसके लिए तुम सबसे रूठे हो
क्या वो सच में तेरा अपना है
जिसके ख्यालों में तुम डूबे हो
दुष्यंत, अब भी नादान हो तुम,
चिकनी बातों में बह जाते हो”
✍️ दुष्यंत कुमार पटेल