*काल्पनिक या माया*
लेखक – डॉ अरुण कुमार शास्त्री , एक अबोध बालक , अरुण अतृप्त
विषय – काल्पनिक
शीर्षक – माया
मैं जीवन की काल्पनिकता का प्रतिवाद नहीं करता ।
सब माया है , न कुछ लेकर आया न कुछ लेकर जाएगा ।
जीवन के मध्य वितंडा का अद्भुत वर्णन रह जाएगा ।
लाख चौरासी योनि , उस पर कर्म का अंकुश ,
फिर कर्मों का लेखा जोखा , अंत हीन प्रारब्ध बनाएगा ।
मानव मन इन के बीच तो त्रिशंकु सम लटका ही रह जाएगा ।
सदियाँ बीती युग बीते, क्षण प्रति क्षण यूं ही ये समय निकलता जाएगा ।
राम नाम की चादर पर जो दाग लगे , बदनामी के ,
उनका निस्तारण आने वाले युग- युग तक न हो पाएगा ।
सब माया है , ये तथ्य अमिट है , न कुछ लेकर आया न कुछ लेकर जाएगा ।
जीवन के मध्य वितंडा का अद्भुत वर्णन रह जाएगा ।
लाख चौरासी योनि , उस पर कर्म का अंकुश , फिर कर्मों का लेखा जोखा ।
अंत हीन प्रारब्ध बनाएगा, मैं जीवन की काल्पनिकता का प्रतिवाद नहीं करता ।
लेकिन सत्य की सत्यता का चिंतन भी न हो पाएगा ।
तन काल्पनिक , मन काल्पनिक , जगत काल्पनिक फिर सत्य कौन समझाएगा ।
छोड़ विषय को , क्यूँ उलझा है ?
ये बतला क्या रोटी , कपड़ा मुफ़्त मिलता है ?
हड्डी तोड़ परिश्रम करके एक जून का उदर भरता है ।
सत्य यही , सत्य यही है शेष कल्पना ।
ये किस – किस को समझाएगा ?
खाली हाँथ आया जग में खाली हाँथ जाएगा ,
मैं जीवन की काल्पनिकता का प्रतिवाद नहीं करता ।
लेकिन कई प्रश्न खड़े है , इनके संशय की धुंध,
अरे अरुण जी कौन हमारे मस्तिष्क से हटाएगा ?
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