बाल कविता

डाकिया
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मेरे उस छोटे से गाॅंव में ,
जब कभी डाकिया आता था।
चिट्ठी पत्री और पोस्ट कार्ड,
कभी अंतर्देशी लाता था।।
कहता देखो रामू काका,
यह तुम्हरी चिट्ठी आई है।
जो लड़का रहता है बैंगलौर,
उसने ही भिजवाई है।।
फिर उस पूरे पुरवा पट्टे में,
राज को था ढूॅंढ़ा जाता।
बस वह ही तो ऐसा बन्दा था,
जो चिट्ठी को था पढ़ पाता।।
यदि बात खुशी की हो कोई,
तो सारे खुशी मनाते थे।
यदि बात कोई गम की निकले,
तो सारे नीर बहाते थे।।
वह चिट्ठी नहीं अजूबा थी,
बूढ़ी ऑंखों का तारा थी।
वह केवल काका का पत्र नहीं,
उस गाॅंव का भाई चारा थी।।
~राजकुमार पाल (राज) ✍🏻
(स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित)