बिठा रखा हूँ बेशक़ तमाम लोगों को सर पे,
बिठा रखा हूँ बेशक़ तमाम लोगों को सर पे,
मगर कुर्सी मन की आज भी खाली है।
ख़ुद को सुखाकर जिसने गुलशन को हरा रखा,
महरूम ख़ुशबू से आज भी वो माली है।।
बिठा रखा हूँ बेशक़ तमाम लोगों को सर पे,
मगर कुर्सी मन की आज भी खाली है।
ख़ुद को सुखाकर जिसने गुलशन को हरा रखा,
महरूम ख़ुशबू से आज भी वो माली है।।