प्रलय की दस्तक

तस्वीरें दास्तान
ख़ुद बयान कर रही हैं,
सपने ख़ाक हो रहे हैं,
आशियाने उजड़ रहे हैं।
प्रलय की दस्तक
आज जहाँ भी हो रही है,
ज़िन्दगी की नाव
धीरे-धीरे डूब रही है।
सड़कें समंदर बनीं,
छतें भी बह गईं हैं,
बचाने की आस में
हजारों आँखें थक गईं हैं।
खेत बह गए सारे,
बीजों की चीख सुनाई दे रही,
रोटियों की उम्मीद
अब पानी में सिसक रही।
बचपन की हँसी भी
कीचड़ में दबी हुई सी है,
माँ की गोद में
बस एक भूखी चुप्पी सी है।
राहत के नाम पर
कुछ वादे बहते जा रहे हैं,
सरकारी तस्वीरों में
बस मुस्कानें रह गए हैं।
दरिया ने दहाड़कर
कई शहर लील लिए,
कितनी मासूम साँसों ने
घर के नाम तिलक लिए।
सामान सब बह गया,
अब तो पहचान भी धुंधली है,
एक ही रुदन है
मलवे में दबे आदमी की चीख क्या सुन ली है ।
छत नहीं, दीवार नहीं,
बस आसमान से बात है,
बाढ़ नहीं, ये तो
इंसानियत की भी एक परीक्षा की घड़ी है।
अब सवाल उठता है —
हमने क्या किया है प्रकृति के साथ?
जिसने रचाया था जीवन,
उसी ने लिया अब अपने हाथ।
अब भी समय है
रोक लो ये विध्वंस की राह,
वरना हर साल
यही प्रलय निकालेगी हमारी आह।