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27 Jun 2025 · 4 min read

अंतिम खंड

“राधा मन वैराग” का उपसंहार—कृष्ण की स्वीकृति।
यह स्वीकृति कोई आदेश नहीं, कोई घोषणापत्र नहीं। यह वह मौन उत्तर है जो राधा के समर्पण की अंतिम पंक्ति पर कृष्ण के ह्रदय में उठता है—और राधा उसे अनुभव में सुनती है, जैसे वंशी की अंतिम साँस।
ये शब्द समाप्ति नहीं, संरचना का वह क्षण बन गए हैं जहाँ
रचना अलौकिक मौन में समाहित होती है।
अब न कुछ पाना है, न कहना—बस स्वीकृति की वह ध्वनि सुननी है…
जो कृष्ण के मौन से गूँजती है।
🌿 उपसंहार: कृष्ण की स्वीकृति
_अब राधा कुछ नहीं माँगती, और कृष्ण कुछ नहीं कहते—
फिर भी एक गहराई में
सब कुछ कहा और सब कुछ पाया ।

अब यह कविता नहीं, यह तपस्विनी रेखा है,
जो प्रेम, वैराग्य, और स्वीकृति के पार…
तुम तक लौटती है—
📜 अनुलेख
(खंडकाव्य “राधा मन वैराग” के अंत में समर्पित एक आत्म-रेखा)

यह ग्रंथ उन क्षणों में जन्मा,
जहाँ किसी ने कुछ नहीं कहा, पर सब कुछ सुना।
जहाँ प्रेम ने कोई दावा नहीं किया, पर पूर्णता की आँखें नम थीं।

राधा ने कृष्ण से न केवल प्रेम किया—
उसने प्रेम को छोड़ना भी सीखा,
और अंततः प्रेम में ही लौट जाना,
बिना किसी अपेक्षा,
बिना किसी उत्तर,
केवल उस मौन की आश्वस्ति के साथ—
जो किसी वंशी की अंतिम साँस में छुपा था।

यह खंडकाव्य कुछ छंदों की गणना नहीं है—
यह वह एक छाया है
जो हर रचनाकार के भीतर गूँजती रहती है,
जब वह कुछ कहना चाहता है…
पर भीतर की ही राधा कहती है—“अब मौन ही पर्याप्त है।”

यह संपूर्ण यात्रा,
संवाद से वैराग्य तक,
प्रश्न से बोध तक,
और अंततः कृष्ण की मौन स्वीकृति तक—
अब किस एक की नहीं रही,
यह अब उन सबकी है,
जो किसी से प्रेम करते हुए प्रेम से आगे बढ़ पाए
यह रचनावान् कृष्ण की वह साँझ-सी ध्वनि है,
जो हर बार कहती है:
“अब सब कुछ कह दिया गया है… बस अब प्रकाश मंद कर दो।”
📖
अब “राधा मन वैराग” पूर्ण हुआ।
और जैसे हर दीप बुझने के बाद थोड़ी देर जलता है—
यह ग्रंथ अब हथेली पर उसी अंतिम लौ की तरह रख दिया गया है…

126
अब कोई पुकार शेष नहीं, कोई स्वर बाकी न रहा,
जो राधा ने प्रेम किया—वही कृष्ण भी कह गया।।
तेरा मौन अब गूंजता है, हर रेखा में समाहित,
राधा की पीर अब नहीं—बस तेरे भीतर स्थगित।

127
न कोई दर्शन माँगा था, न कोई संकेत,
फिर भी तू आ गया—बिना छूए, बिना रेत।।
मेरे अंतर्मन में जो मौन बसा था तेरे नाम का,
अब वही बन गया तर्पण, तेरा अभिषेक अनाम का।

128
तू कुछ नहीं बोला, पर मैं सब जान गई,
तेरे अधरों की शांति से ही बात मान गई।।
अब जो तू मौन दे रहा, वही गान है मेरा,
क्योंकि राधा अब तू नहीं, तू ही राधा मेरा।

129
तेरे मौन की वह वंशी, जो अधरों पर थमी,
अब वह राधा की श्वास में बनी एक स्वर्ग ध्वनि।।
अब मैं पूछूँ नहीं, न तू कहे कोई पंक्ति,
हम दोनों ही मौन हैं—फिर भी सबसे प्रखर संज्ञा सृष्टि।

130
इस स्वीकृति में कोई शब्द नहीं,
बस एक ग्रहण, जो रेखा में गंध नहीं।।
तू बोला नहीं—फिर भी वंशी गूँजी,
क्योंकि तेरे मौन से ही मेरी आत्मा सूनी।

131
अब मैं नहीं रही—यह देह, यह प्रश्न, यह कथा,
सब तुझमें लौट गया—जैसे लहरें समा गईं तटथा।।
तेरा मौन, तेरा स्वीकृति, तेरा निर्वाण,
अब सब कुछ मेरा है—क्योंकि मैं अब न होना जान।

132
तेरे मौन ने ही मेरी तपस्या पूर्ण की,
तेरी चुप्पी ने ही मेरी साधना को ध्वनि दी।।
अब अगर कोई कहे, “राधा क्या थी?”,
तो बस इतना कहना—“वह मौन में कृष्ण थी।”

133
कृष्ण! यह स्वीकृति, यह वंशी की हल्की साँस,
अब मेरे ह्रदय में परम शांत प्रकाश।।
न तू कहा, न मैं सुनी, फिर भी संवाद पूर्ण हुआ,
अब इस मौन में ही सकल ब्रह्म व्याप्त हुआ।

134
तेरी स्वीकृति अब शब्द नहीं,
वह आभा है—जो अंधकार में भी छंद बनी।।
तेरा मौन मेरे हर उत्तर का उद्घोष है,
और इस मौन में ही प्रेम, प्रश्न, और राधा को रोष है।

135
तो ले कृष्ण… अब कुछ कहने की आवश्यकता नहीं,
मैं अब राधा भी नहीं—तेरा मौन ही सही।।
तेरी स्वीकृति मेरा अंतिम गीत है,
अब तू कुछ कहे न कहे—मैं तुझमें ही पूर्ण रीत है।

🌿 उपसंहार: कृष्ण की स्वीकृति
136
जो कह न सका तुझसे अब तक, वह तुझमें ही था।
जो बाँध न पाया स्वर में, वह मौन बना पिता।।
तेरी एक नज़र ने कह दी, सब वादों की रीति।
अब न शेष कुछ शेष रहा है, तू ही मेरी नीति।।

137

किस छवि में मैं और रहूँ जब, तू ही बन गई लय।
जिसमें राधा ‘मैं’ न कहे अब, वही कृष्ण का भव्य।।
जिस क्षण तू मौन समर्पित थी, मैं उस पल बँधा।
ना बाँसुरी, ना शब्द शेष थे, बस तेरा वह गहना।।

138
तू जो कहे, वही मेरा स्वर, तू जो थमे, मैं शांत।
राधा तू ही रचयिता है, मैं तो तेरा आंत।।
अब से यह जो भाव बहेगा, वह तू और मैं नहीं।
बस एक अदृश्य अनुराग है, जिसका अर्थ कहीं।।

139
अब वंशी में स्वर न भरूँगा, वह तो तेरी साँस।
जिसमें तू ही स्वर बन जाए, बनकर ध्वनि की प्यास।।
तेरे मौन समर्पण से ही, मैं अब पूर्ण कहाया।
जिस राधा ने कुछ न माँगा, उसने सब पा पाया।।

140
जो तुमने कहा, वह मेरा था, जो न कहा, वह मैं।
राधा! अब जब तू ही ‘मैं’ है, कौन रहे फिर ‘तू’ में?
तेरे ‘ना’ में, तेरे ‘हाँ’ में, बस अब मैं ही बोलूँ।
तेरे चरणों में स्वीकृति बन, मौन से बोल दूँ।

मनोरमा जैन पाखी 27/06/2025

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