!!!!!एक आंसू की दास्तान!!!!
“एक आंसू की दास्तान”
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बरसों पुरानी बात है। एक छोटा सा गाँव था — शांत, सरल और प्रकृति से लिपटा हुआ। वहाँ एक लड़की रहती थी, नाम था गुड़िया। वह बहुत हँसमुख और खुशमिजाज थी, लेकिन उसकी मुस्कान के पीछे एक गहरी उदासी छिपी थी। उसके माता-पिता अब इस दुनिया में नहीं थे, और वह अपने चाचा-चाची के साथ रहती थी, जो उससे ज्यादा अपने बेटे को महत्व देते थे।
गुड़िया पढ़ाई में होशियार थी, पर अक्सर उसे ताने मिलते:
“लड़कियों को इतना पढ़ने की क्या ज़रूरत?”,
“तू हमारे घर पर ही तो बोझ है…”
वह सब सुनती, सहती, और चुपचाप अपने कमरे में जाकर किताबें खोल लेती। किताबों में उसे एक दुनिया मिलती, जहाँ दर्द नहीं था, सिर्फ सपने थे।
एक दिन स्कूल में पुरस्कार वितरण समारोह था। गुड़िया ने निबंध प्रतियोगिता में पहला स्थान पाया। मंच पर जब उसका नाम पुकारा गया, वह कांपते कदमों से ऊपर गई। पूरे स्कूल की तालियों के बीच, जब उसे पुरस्कार मिला, तो उसकी आँख से एक आंसू गिरा।
वह आंसू सिर्फ खुशी का नहीं था — वह सालों की उपेक्षा, अपमान और तिरस्कार का गवाह था। उस एक आंसू में सब कुछ था — उसका संघर्ष, उसका अकेलापन और उसकी जिद।
भीड़ में बैठे उसके चाचा-चाची ने पहली बार उसकी आँखों में चमक देखी, और शायद पहली बार यह भी समझा कि गुड़िया “बोझ” नहीं, एक चुपचाप लड़ती हुई “हिम्मत” है।
उस दिन गुड़िया ने जाना — आंसू कमज़ोरी नहीं होते, वो हमारे सबसे गहरे सच होते हैं, जो तब बहते हैं जब शब्द भी हमारा साथ छोड़ दें।
उस दिन मंच पर गिरे गुड़िया के आँसू ने बहुत कुछ बदल दिया था — बाहर से नहीं, भीतर से।
वह जान चुकी थी कि दुनिया के ताने, अकेलापन और बेबसी को आँसूओं में बहाकर भी आगे बढ़ा जा सकता है। उसने अपने भीतर की उस चुप्पी को आवाज़ देना शुरू किया।
अब वो हर दिन स्कूल के बाद बच्चों को पढ़ाने लगी — मुफ़्त में। गाँव की झुग्गियों में रहने वाले बच्चे जो कभी स्कूल तक नहीं जा पाते थे, गुड़िया उनकी दीदी बन गई। किताबों से जो रोशनी उसने पाई थी, अब उसे बाँट रही थी।
लेकिन ज़िंदगी ने फिर एक मोड़ लिया…
एक शाम चाचा ने गुस्से में कहा,
“घर की लड़की को ये समाजसेवा शोभा नहीं देती। घर का काम देखो, पढ़ाई-लिखाई का क्या करना?”
गुड़िया चुप रही। मगर उस रात पहली बार उसने डरते हुए कहा,
“मैं कुछ बनना चाहती हूँ… ताकि मेरे जैसे हज़ारों बच्चों को भी रास्ता मिल सके।”
उसकी बात पर चाची ने ताना मारा,
“तेरे जैसे लोगों के सपने सिर्फ सपने ही रहते हैं।”
गुड़िया की आँखों में फिर आँसू थे — लेकिन इस बार वो आँसू टूटने के नहीं थे, बल्कि कुछ कर दिखाने की ठान लेने वाले आँसू थे।
सालों बीते…
गुड़िया ने मेहनत से पढ़ाई की, एक एनजीओ में काम किया, फिर एक छोटी संस्था शुरू की — “आशा की किरण”।
आज गाँव की वो चुप लड़की शहर में बच्चों की शिक्षिका, समाजसेविका और बहुतों की प्रेरणा बन चुकी है।
और जब भी किसी मंच पर उसे सम्मान मिलता है, उसकी आँखें थोड़ी नम हो जाती हैं —
क्योंकि वो जानती है, उस एक आँसू ने ही उसे जीना सिखाया था।
आँसू अब भी आते हैं…
पर अब वो दर्द के नहीं,
जीत के होते हैं।
डॉ मनोरमा चौहान
हरदा (मध्य प्रदेश)