कविता की डोर से बंधा हुआ आदमी
*कविता की डोर से बंधा हुआ आदमी *
आदमी और आदमीयत की
बदलती तस्वीर
खींच रही है लम्बी रेखा
दीर्घ काल तक अपने
छवि की सुंदर परिभाषा
गढ़ने वाले मानव ने
न जाने कितने बदलाव किए हैं
अपने स्वभाव,आचरण एवं
मानवीय मूल्यों में
उठा,गिरा फिर उठा और
चल दिया।
नियति ने जो चाहा चलाया
लम्बे डग, परिमार्जित रूप
चाल और ढंग में बदलाव
सबने देखा
आदमी और आदमीयत की
बदलती तस्वीर
खींच रही है लम्बी रेखा।।
तार तार हो रहे रिश्ते
टूट रहीं मर्यादाएं
रिश्ते नाते परम्पराओं की
उन गंभीर संवेदनाओं की
जिनसे मानव, सच्चे अर्थों में
बनता है मानव।
कविता देख रही है
कापुरुषों को,
पूॅजी के रंग में सराबोर
आकर्षक रिश्तों की तिजारत
खोखला बना रही है
मानवीय संवेदना की परत को
तोड़ रही है।
पूंजी के कल्पनालोक में डूबा हुआ आदमी
बंधा हुआ है,झद्म रिश्तों से
करुणा, दया, अपनत्व
तो होते हैं गरीबों की झोपड़ी में
झकझोरती सी निकलती जब
टटोलता खाली जेब
निहारता शून्य में
कल्पनाओं की लीक
मानव होने की परिभाषा
वहीं से गढ़ी जाती है
कविता बढ़ती है, दौड़ती है
चीत्कार भी करती है
कविता की डोर से बंधा हुआ आदमी
बुनता है भविष्य के ताने-बाने।।
@डाॅ मोहन पाण्डेय ‘भ्रमर ‘
हाटा कुशीनगर उत्तर प्रदेश
**9793070189