सिन्धु रुकती कब
उचित अनुचित में
रुक जाना बेहतर है
अधिक पर अधिक
मधुर मधु हो कड़वी
छिल छाले फोड़े जब
धुल उड़ हो पथ सूनी
ज्वाला शीतलता का
स्पर्श स्पंदनआँसू बह
चाहकर भी ना रुकता
अति से परहेज सीखता
कल कल छल छल बेसुध
सिन्धु दूजे को जीवन देती
सुख नवल उमंगों की जब
अनजानी सुहाग मिटाता
हृदय की विकल वेदना को
भींगी पलकों पे छोड़ जाता
क्रीड़ा से पीड़ा लेकर जब
सुहागिन रोती घर कोने में
तब सिंधु की नवजीवन धार
छोड़ बुलबुले रुक जाती है ।
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टी .पी . तरुण