'युद्ध की अरघनी टटोलता स्त्री का प्रेम'
ऐसा नहीं है कि मैं !
अनभिज्ञ हूँ युद्ध की आहट से
अपरिचित हूँ युद्ध के परिणाम से
मानव के बेबस संग्राम से
मैं भी उद्वेलित हूँ
गोलियों की तड़पड़ाहट से
नन्हे-सहमे भय की अकुलाहट से!
मुझे ज्ञात है कि..
किसी भी पल रह जायेगी निश्चेष्ट
यह हलचल!
पर उससे पहले..
ओ प्रिय!
मैं कर लेना चाहती हूँ
सोलह श्रृंगार ..
तुम्हारे प्रेम पगे असंख्य भावों से।
जी लेना चाहती हूँ
तुम्हारे नेह का
एक-एक क्षण..
छोड़ कर
अपने मन का भय
मैं खो जाना चाहती हूँ
तुम्हारी शांत-अनमोल
साॅंसो की छाॅंव में!
सुंदर-नवजात..
सपनो की बाँह में…
इस विश्वास के साथ कि
अभी तक मैं जीवित हूँ ।
ओ प्रिय !
मैं रोक देना चाहती हूँ ..
इस बर्बर हिंसा को
और जन्म देना चाहती हूँ
अपनी कोख से
एक नये उजास भरे युग को!
एक नयी प्रेरणा को!
एक नए साहस को..
जो शांति ले आए
जो शांति बाँटे
और
वो शांति..
अमर हो जाए!
रश्मि ‘लहर’