संस्मरण आगे "एक बचपन मेरा भी" का अंश
गाँव में शादी-ब्याह का माहौल काफी अच्छा होता था| जिस घर में शादी होनी होती थी, वहाँ एकाध पखवारा से चहल-पहल दिखने लगता था। गाँव के लोग एक-दूसरे की मदद करने में हमेशा आगे रहते थे। अगुआ (विवाह प्रस्ताव लेकर जाने वाला व्यक्ति) का तो घर में बहुत मान-सम्मान होता था। वह घर के अंदर-बाहर लड़का और लड़की के परिवार के बीच पुल का काम करता था।
भविष्य होने वाले पति-पत्नी एक-दूसरे को शादी से पहले देखना या बात करना बिलकुल वर्जित था| हाँ, लड़की बाप लड़की का फोटो लेकर जाते थे और उनके यहाँ से लड़का को फोटो अनुरोध करके मांग लेते थे और फोटो पर ही शादी पक्की होती थी अथवा टूट जाती थी| सामाजिक तानाबाना ऐसा था कि शादी के पहले जहां इस तरह की बात चलती होती थी वहां न लड़का का रहना या सुनना गंवारा था और न लड़की का | छुप-छिप कर भले ही सुन ले लेकिन यह भी डर होता कि कोई देख लेगा तो शर्मिन्दगी होगी| सब कुछ परिवार के बड़ों द्वारा तय किया जाता था। विवाह के बाद गौना (द्विरागमन) का रिवाज होता था, जिसमें शादी के कुछ महीनों बाद या कुछ वर्षों बाद लड़की की बिदागरी होती थी| इसके लिए पीला झकाझक साड़ी साया ब्लाउज जिसे गौनहारी साड़ी कहा जाता था उसी को पहनाकर लड़की की बिदाई होती थे और तब जाकर कहीं पति-पत्नी को एक-दूसरे को सही मायनों में जानने समझने का मौका मिलता था।
शादी और तिलक का आयोजन प्राय: घर पर ही होता था, न कि आजकल की तरह बड़े होटलों या मैरिज हॉल में होता था । उस समय का परदा सिस्टम और बड़ों के प्रति लाज-लिहाज आज के मुकाबले कहीं ज्यादा था। शादी-ब्याह के इन रिवाजों में एक तरह की मासूमियत और संस्कृति की मिठास हुआ करती थी,| अक्सरहां लड़का-लड़की की शादी कम उम्र में ही कर दी जाती थी| शादी- विवाह का आधार सामाजिक आर्थिक और कुल खानदान की समानता देखकर पक्की की जाती थी| वह सारी परम्पराएं आज की आधुनिकता में कहीं खोती जा रही हैं। इसलिए हिन्दुओं के सर्वाधिक पवित्र पर्व छठ में लोग गीत में गाते थे कि रूनकी झुनकी बेटी दिह, पढ़ल लिखल दामाद हे छठी मैया, दर्शन देहु न अपार| लेकिन आज मान्याताएँ बदल गयी है| जो गीत बन सकता है वह यह कि सुन्दर स्मार्ट बेटी दिह, खूब कमौआ दामाद हे छठी मैया, दर्शन देहु न अपार|
गाँव में जिसके यहाँ विवाह योग्य लड़का होता उनके यहाँ लगन शुरू होने के दो चार महीने से लड़की वाले किसी अगुआ को लेकर आते-जाते रहते थे| जब किसी के यहाँ इस तरह कोई आता तो दरवाजे पर कोई बात बनाने तथा कोई बात बिगाड़ने किसी-न-किसी बहाने से आने लगते थे| उस समय महिला वर्ग दरवाजे पर प्राय: नहीं आती थीं| लड़का की माँ को कुछ जानना होता तो दरवाजा पर लगे परदा के भीतर से इशारा करके अगुआ को आँगन में बुलाती और फुसुर-फुसुर लड़की वाले के बारे में सारी जानकारी ले लेती थी| लड़की लम्बी है कि नाटी, गोरी है कि काली, अनपढ़ है कि पढी लिखी,भाई कितना है, बहन कितनी है, लड़की का बाप क्या करता है,खानदान कैसा है, लड़की का चाल-चलन कैसा है,चाचा बाबा से लेकर दादी परदादी तक की जानकारी ले ले ली जाती थी| लड़का की माँ कभी रसोई घर में तो कभी दरवाजा पर खडी होकर सारी बात को कान पात कर सुनती रहती थी| जब देंनं -लेंन की चर्चा चलती तो लड़का की माँ इशारा से लड़का के बाप चाचा, दादा जो बातचीत में मुखर होता बुलाकर अपनी भी फरमाईस पूरा करवाने के लिए दबाव डालने के लिए दबाव डालती रहती थी| अगुआ बेचारा कभी बाहर समझाता तो कभी भीतर आकर आँगन में इंतज़ार कर रही महिला वर्ग को भी लड़की और लड़की के परिवार वालों की बडाई का पुल बांध देते थे| बीच-बीच में मर-मिठाई, अमकीन-नमकीन, चाय-पानी, पान-सिगरेट को दौड़ चलता रहता था| लड़ाका वाला अपनी उदारता दिखलाते हुए कुटुंब के साथ-साथ वहां उपस्थित ग्रामीण को भी सम्मान देने में कोई कोताही नहीं करते थे| बड़कई दिखाकर ही लड़की वाले से ज्यादा से ज्यादा ऐठ सकते थे| दरवाजा पर जब अधिक आदमी जुट जाता तो अगल-बगल के पड़ोसी के यहाँ से भी चुपचाप कप-प्लेट लाकर इज्जत बचाई जाती थी|
तिलक शादी भी उस समय लोग घर से ही करते थे| उस समय रिजोर्ट, होटल, कम्युनिटी हौल,आदि में तिलक-विवाह का हमारे गाँव में प्रचलन न था| बड़े शहरों में होता होगा उसकी भी जानकारी न थी| जयमाला आदि का भी उस समय रश्म न था| शादी के पहले लड़का- लड़की को देख ले या लड़की लड़का से नजर मिला ले,राम-राम छी-छी| ऐसा कभी संभव ही न था| बाप दादा जिस लड़का से जहां जिस लड़की की शादी तय कर दे उसी से शादी करनी होती थी और यह बात लड़का के लिए भी लागू होती थी|
गौना का भी एक विधान होता था| एक वर्ष बाद या तीन साल बाद द्विरागमन(गौना ) का शुभ मुहूर्त लड़का वाले के द्वारा निकलवाया जाता था और लड़की वाले के यहाँ चिठ्ठी से या किसी आदमी के द्वारा बिदागरी का वह दिन भेजा जाता था| पहले दिन को लड़की वाले नकार देते थे क्योंकि बेटा वाला द्वारा भेजा गया पहला दिन मानने में तौहीनी मानी जाती थी| इसके पीछे तर्क यह था कि उस लड़की के घर वाले के लिए बेटी भार नहीं है| दुबारा तिबारा जो दिन भेजा जाता था उस दिन को लड़की वाले द्वारा मंजूर किया जाता था| तब उस दिन कुछ लोगों के साथ बारात साज कर दुबारा लोग लड़की की बिदागरी करने आते थे और लड़की को विदा कराकर लाते थे| इस बिदागरी में विशेष बात यह होती थी कि लड़का के बाप को नहीं जाना होता था | सारा कार्य बहुत ही मर्यादित तरीके से होता था|
उस दौर में दुल्हा चार चक्का की सवार्री से शादी करने नहीं जाते थे| डोली की व्यवस्था होती थी | चाहे वह दूर की बारात हो या नजदीक की एक पहले बारात को जनमाशा में ठहराया जाता था| वहीं लोग रास्ता के थकान को मिटाते थे,नहाते-धुआते थे, नास्ता पानी होता था, बाराती गण कपड़ा बदलते थे तब हाथी घोड़ा, ऊंट जिसकी जैसी हैसियत होती थी लड़की वाले के दरवाजे पर जाते थे| लड़का और सहबल्ला डोली पर और शेष बाराती गाजे-बाजे के साथ दरवाजा लगाने जाते थे| अक्सर शादी में नाच पार्टी भी जाती थी| शादी के अगले दिन भी बाराती वहीं रहती थी दोपहर और रात में नाच गाना होता तो अगले सुबह वहां से प्रस्थान करते थे| शादी के अगले दिन को मरजाद के नाम से जाना जाता था और उसके अगले दिन भी बारात ठहर जाए तो शरजाद कहलाता था| मुझे याद है मैं उस समय काफी बच्चा था| मेरी बहन की शादी में बारातियों ने शर्जाद का भी आनंद उठाया था|
डोली भी दो तरह की होती थी| एक डोली चारो तरफ से खुला होता था और उसको उठाने बाला बांस वक्राकृति लिए होता था| दो कहार आगे और दो कहार पीछे लगते थे और दुल्हा को बारात के साथ लेकर चलते थे| दरवाजा लगाने के बाद वर को जनमासा में भेज दिया जाता था| दुल्हा राजा जब भी जनमासा से लड़कीवाले के घर और लड़की के घर से जनमासा जाता तो उसके आगे बाजा बजता जाता था| गाँव के लोग घर के भीतर से ही समझ जाते थे कि दुल्हा आ जा रहा है| जिस डोली से लड़की विदा होती थी वह खुली नहीं होती थी|चारो तरफ से बंद होती थी|चारो तरफ से ओहार परदा लगा होता था| केवल लड़की के घुसने और निकलने भर का दरवाजा होता था और वह भी दुल्हिन के घुसने के बाद कपड़ा से ढँक दिया जाता था|
मुझे याद है कि किस तरह से बेटी की बिदाई के समय उपस्थित लोग भाव विह्वल हो जाते थे| वहां कौन कोई ऐसा नहीं होता था जिसकी आँखें अश्रुपूरित नहीं होती|दुल्हन को जबरजस्ती डोली पर बैठाया जाता था और लड़की की रुलाई की आवाज तबतक आती रहती थी जब तक बहुत दूर न चल गयी हो |वह दृश्य बहुत हृदय विदारक होता था|