Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
21 Jun 2025 · 1 min read

ग़ज़ल *मैं जिसे वक्त समझ कर जीता रहा*

मैं जिसे वक्त समझ कर जीता रहा,
वो ही हर लम्हा मुझसे बचता रहा।

जिसके आँगन में ख्वाब बोए थे,
वो ही हर ख़्वाब को कुचलता रहा।

मैंने दिल की सभी चुपियाँ दे दीं,
वो मेरी आवाज़ से डरता रहा।

मैंने खुद को भी हार कर देखा,
वो मगर जीत पे ही मरता रहा।

जिसको अपना बना लिया था कभी,
वो मुझे गैर सा ही समझता रहा।

वक्त मेरा गया तो क्या रोऊँ?
मैं तो बस प्यार में उलझता रहा।

अब न शिकवा, न कोई उम्मीद है,
मैं इसी तरह खुद से ही कटता रहा।

~करन केसरा~

Loading...