*लघुकथा:"सिरहाने रखा आसमान"*
“सिरहाने रखा आसमान”
एक उत्तर भारतीय कस्बा जहाँ समय धीरे चलता है, और लोग ज़्यादा नहीं बदलते। चारों ओर सरसों के खेत, पीपल के पेड़, बजता रेडियो, और साइकिल पर स्कूल जाती लड़कियाँ।
17 वर्षीय कल्पना त्रिपाठी, एक साधारण, मिडिल-क्लास परिवार की लड़की है। पिता स्थानीय स्कूल में अध्यापक हैं, माँ घरेलू महिला। कल्पना का जीवन दिनचर्या में बँधा हुआ है , स्कूल, घर, रसोई, और बीच-बीच में कविता की डायरी।
वो सुंदर नहीं कहलाई जाती, फैशनेबल नहीं है, न ही उसमें कोई बड़ी बात दिखती है, पर वह गहराई से देखने, सुनने और समझने वाली लड़की है। उसके पास नारीत्व की एक सहज, नैसर्गिक दृष्टि है ,जो उसने अपनी माँ, दादी, और खेतों में काम करती स्त्रियों से जज़्ब की है।
स्कूल में एक नई टीचर आती हैं, मिस प्रेरणा घोष, जो कोलकाता से आई हैं और जिनका पहनावा, बोली, आत्मविश्वास सब कुछ नया लगता है। वो छात्राओं को “अपने भीतर की आवाज़” सुनने के लिए प्रेरित करती हैं। कल्पना पहली बार आत्मनिरीक्षण करती है — क्या वो सचमुच केवल गृहस्थ जीवन के सपने तक सीमित है?
कल्पना के भीतर दो आवाज़ें हैं ; एक, जो उसे कहती है कि उसे वही बनना है जो समाज कहता है ; शालीन, समर्पित, सरल। दूसरी, जो उसे बार-बार उस कविता की डायरी की ओर खींचती है, जहाँ वो खुद को बिना लाग-लपेट के लिखती है।
वह चाहती है कि, उसकी माँ को भी कभी कोई ध्यान से सुने , उसकी दादी की कहानियाँ केवल रसोई तक सीमित न हों। कल्पना के लेखन में धीरे-धीरे एक स्पष्ट स्वर उभरता है , वह उन स्त्रियों की बात करती है जिन्हें कोई कभी सुनता नहीं।
कल्पना की माँ उसे जल्दी विवाह के लिए तैयार करना चाहती हैं। एक अच्छा रिश्ता आया है , बैंक में कार्यरत लड़का, घर भी बढ़िया है। पिता कुछ असहज हैं लेकिन माँ कहती हैं, “लड़की की उम्र ज़्यादा हो जाए तो रिश्ते छूट जाते हैं।”
कल्पना कुछ नहीं कहती। वह किसी से झगड़ती नहीं। लेकिन वो हर रात अपनी डायरी में लिखती है , “क्या स्त्री को प्रेम माँगने से पहले, अपने भीतर खुद को पा लेना चाहिए?”
मिस घोष कल्पना की कविता पढ़ती हैं, और एक राज्य स्तरीय युवा लेखन प्रतियोगिता में भेजने का सुझाव देती हैं। कल्पना हिचकिचाती है, “मेरी बातों में क्या खास है?”
मिस घोष मुस्कराती हैं, “तुममें वो खामोश स्त्रियाँ बोलती हैं जो अपने भीतर एक ब्रह्मांड लिए फिरती हैं।”
कल्पना की कविता “सिरहाने रखा आसमान”प्रतियोगिता में प्रथम आती है। वह दिल्ली में पुरस्कार लेने जाती है, पहली बार घर से बाहर।
दिल्ली में वह न केवल सम्मान पाती है, बल्कि पहली बार उसे लगता है , उसकी बातों का कोई अर्थ है। कोई उसे ‘छोटी जगह की लड़की’ नहीं कहता, बल्कि गहरी दृष्टि वाली लेखिका’ कहता है।
वापस आकर वह मना कर देती है विवाह के प्रस्ताव को। माँ आहत होती हैं। पूरा मोहल्ला ताना मारता है। लेकिन पिता धीरे से कहते हैं, “कल्पना, जो तुम्हारा मन कहे वही करो , मगर अपने नारीत्व का अपमान मत करना, क्योंकि तुम्हारी सच्चाई वहीं से आती है।”
कल्पना उच्च शिक्षा के लिए बनारस जाती है, लेकिन कस्बा और उसकी स्त्रियाँ उसके भीतर हमेशा बनी रहती हैं।
कहानी वहीं खत्म नहीं होती। वह डायरी जो एक तकिए के नीचे दबा दी जाती थी, अब एक प्रकाशित कविता संग्रह है ,और उसका शीर्षक वही है: “सिरहाने रखा आसमान।”
कल्पना अब युवा लड़कियों को सिखाती है , अपने भीतर की स्त्री से जुड़ना ही सबसे पहला विद्रोह है।
©® डा० निधि श्रीवास्तव “सरोद”