कदम-कदम पर सपने
हर सुबह उठते ही एक ख्याल मन में आता है — क्या आज मैं अपने उस सपने के और करीब पहुंचा हूं?
सपने… जो हमने बचपन में आंखों में बसाए थे, जो कभी स्कूल की परेड में कदम मिलाते हुए जगे थे, जब पहली बार जय हिन्द बोलकर छाती गर्व से फूल गई थी।
*मेरा सपना छोटा था — देश की वर्दी पहनना। वो वर्दी जो सिर्फ कपड़ा नहीं, बल्कि ज़िम्मेदारी होती है। *वो सपना मेरी हर हार, हर थकावट, हर चोट में साथ रहा। जब लोग कहते थे कि ये बहुत मुश्किल है, तब वो सपना अंदर से आवाज़ देता था — अगर तू रुका तो ये सपना अधूरा रह जाएगा।
फौज में भर्ती होने का दिन आज भी याद है। जैसे कोई अधूरा गीत पूरा हुआ हो। जब पहली बार वर्दी पहनी थी, तो आईने में खुद को देखा — लगा जैसे वो सपना अब मेरी हकीकत बन गया हो। पर सपने यहीं खत्म नहीं होते।
वर्दी पहनने के बाद एक नया सपना जन्म लेता है — कि इस वर्दी की इज़्ज़त बनाए रखूं। सुबह की पीटी, फायरिंग प्रैक्टिस, सरहद की ठंडी हवा — सबके पीछे एक ही भावना होती है — देश के लिए कुछ करने का सपना।
हर सैनिक का सपना सिर्फ अपनी तरक्की का नहीं होता — वो चाहता है कि उसका हर कदम देश के लिए हो।
जब वो घर लौटे, तो माँ का चेहरा मुस्कराए, बापू की आंखों में गर्व हो और गांव वाले कहें – देखो, ये वही लड़का है जो कभी सबसे lazy हुआ करता था, आज देश की रक्षा कर रहा है।
(हे पार्थ बस हिम्मत रख और आगे बढ़ता चल, रास्ते खुद-ब-खुद बनते जाएंगे)
– कृष्ण सिंह (शिक्षा अनुदेशक)