मन की खिड़की से
एसी डिब्बा के साइड लोअर सीट पर बैठा रवि भूषण शीशा से बाहर झाँक रहा था और रेलगाड़ी पटरी पर सरपट दौड़ रही थी। रेलवे लाईन के अगल-बगल के पेड़-पौधे पीछे छुटते चले जा रहे थे मानो आधुनिक युग में जिस तरह रिश्ते – नाते छुटते चले जा रहे हैं। पटरी के अगल- बगल के दरख़्त शायद उसे समझा रहे हों “देखो, हमें देखो, कितना आंधी- तूफान सहकर खड़ा हूं।“
लम्बे-लम्बे ऊंचे-ऊँचे शहतीर के पेड़, जहां तहां खजूर,आम,ताड़,बबुल के पेड़ अटलता का संदेश दे रहे थे तो दूसरी ओर समतल जमीं पर लहलहाते फसल हर मुश्किलों में हंसते मुस्कुराते रहने का संदेश दे रहा था और यह भी कह रहा था -‘हू दैट इज डाउन नीड्स फियर नो फौल’
लेकिन रवि भूषण की बाह्य दृष्टि बाहर का दृश्य देख रही थी परन्तु आतंरिक चक्षु तो कुछ और ही देख रही थी। जिस भविष्य को आजतक किसी ने नहीं देखा, उसी भविष्य को देखने का प्रयास निरंतर जारी था और अन्दर की आँखें भविष्य का दृश्य देख हैरान थी, परेशान थी। न जाने क्यों अकस्मात् उसके आँख से आंसू के दो बूँद,मोती के दो मनका, ढलक गए.जल्दी से उसे पोछा; कोई देख न ले.
सोच का क्रम जारी था- मां बच्चों को जन्म देती है, परवरिश करती है। पिता पढ़ाता है, लिखाता है लेकिन व्यक्तित्व तो खुद ही बनाना पड़ता है, सहने का सामर्थ्य तो स्वयं ही बनाना पड़ता है।फिर क्यों लोग बेवजह गलती को एक दूसरे पर मढता है। रवि भूषण असहज हो रहा था। अचानक विपरीत दिशा से आ रही एक ट्रेन ने उसके विचार लड़ियों को तोडकर उसे छिन्न-भिन्न कर डाली थी।
गाडी गुजरने के बाद फिर अचानक मन ने एक प्रश्न किया – “कौन है जो इस भुवन में सुखी है?”
दिल ने ज़बाब दिया- “कोई नहीं।“
मन ने कहा- “यह क्या कह रहे हो ? कोई सुखी नही ?”
“हां, मैं बिल्कुल सही कह रहा हूं। किंचित मात्र झूठ नहीं बोल रहा हूँ” दिल ने कहा
“और जो मैं देखता हूं ?”
“भ्रम है तुम्हारा”
“ वह कैसे?” मन ने जिज्ञाशा जताया.
“जिसे तुम सुखी देखते हो,उसे सुखी होना आता है”
“वह कैसे ?”
“ऐसे कि उसके जीवन में भी बहुत उलझने हैं लेकिन उन्हें कोई परवाह नहीं। जो है,वह है जो नहीं,वह नहीं है।“
“समझा नहीं।“ मन ने कहा
“समझने के लिए समय चाहिए, समझने के लिए धैर्य चाहिए, समझने के लिए ज्ञान चक्षु चाहिए।“
“तो क्या मैं समझदार नहीं हूं,तो क्या मेरे पास धैर्य नहीं है, क्या मेरे पास ज्ञान चक्षु नहीं?”
“ है, लेकिन भौतिकवादी वितृष्णा ने तुम्हारे सभी ज्ञान चक्षु पर अहम का पर्दा डाल दिया है।‘रवि भूषण सोच के गहरे सागर में डूबता जा रहा था.
“चाय गरम,गरम चाय” की आवाज में मन और दिल में चल रहा वार्तालाप विलीन हो गया,घुल गया.उसका मन अथाह गहराई से जल सतह के ऊपर तैरने लगा.रवि भूषण की इच्छा हुई जरा चाय की चुस्की ली जाए।
“एक चाय मुझे भी देना |’
चाय सावधानीपूर्वक हाथ में लिया, चायवाले को इशारा किया;उधर से लौटो तब पैसा लेना. चायवाला शायद शरीफ था उसकी बात को मान लिया.”चाय गरम, अदरक वाली चाय” कहता हुआ आगे चला गया |
उसने अपने घर पर फोन लगाया,उधर से नीरस आवाज आयी। फोन बिना कुछ बोले रख दिया.
सोचा -जहां बात में इतनी नीरसता है, वहां व्यवहार में कितनी नीरसता होगी। रवि भूषण झेंप गया।
समय पर सबकुछ छोड़कर रवि भूषण बैग से चादर निकाला और अपने बर्थ पर चादर तान कर सो गया। रात नहीं थी, दिन था, सुबह-सुबह का समय.फिर सो गया, कुछ सोचकर|.
दिन था, कम्पार्टमेंट में काफी चहल-पहल था फिरभी रजनीश गाढी नींद में सो गया|.
उसने वर्षा बूंद को समुद्र जल बूंद से कहते हुए सूना – “तुझसे ही निकला हूं और आज तुम्हीं में समा रहा हूं।‘
समंदर जल गर्मजोशी से उसका स्वागत करते हुए कहा – “व्यष्टि और समष्टि में अंतर तो होता ही है. फिरभी तुझे पाकर मुझे लग रहा है; मुझे बिछुड़ी शक्ति फिर से मेरे पास आ गया, मेरी ताकत बढ़ गया|.
नींद में भी द्वंद्वयुद्ध छिड़ा था.|
“देखा, निर्जीव है जल पर अपनापन कितना है और तुम मानव ?” बुद्धि ने कहा
मन थक चुका था, कुछ नहीं कहा; अपनी असमर्थता जताई, उसे कुछ नहीं सूझा|
बुद्धि ने फिर कहा – “समझने की कोशिश करो. मानव जीवन एक संघर्ष है,एक जद्दोजहद है.यह अनवरत द्वंद्व से भरा है, टकराव से भरा है, अलगाव से भरा है. इसमे सुख भी है, इसमे दुःख भी है”
मन एक बार फिर जबाबी पहल करने की सोच ही रहा था कि अगले स्टेशन पर उतरने वाले यात्र्री की आवाज से रवि भूषण जग गया था|
वह तो स्वप्न की बात थी लेकिन मन और बुद्धि के बीच का द्वंद्व-युद्ध उतरने की अफरा तफरी में कहीं विलीन हो गया, ख़त्म हो गया, दोनों योद्धा की जीत हुई, दोनों योद्धा की हार भी|
रवि भूषण को भी उसी स्टेशन पर उतरना था, उतर गया|