*पूर्ण होने का भ्रम*

जिसको लगता है वो पूर्ण है,
वही अपने आप में सबसे अपूर्ण है यहाँ।
जो समझता है ख़ुद को फ़ौलाद,
और कोई नहीं, वही सबसे जीर्ण है यहाँ।
जो बोले “मैं जानता हूं सब”,
उसके भीतर सबसे गहरी अज्ञानता बसती है।
जो कहे “मुझसे कभी भूल नहीं होती”
उसकी ही चेतना सबसे ज़्यादा भटकती है।
जो हर समय ख़ुद को ऊँचा माने,
वही अक्सर सबसे नीचा गिरता है।
जो हर मोड़ पर ज्ञान बांटता है,
वही अक्सर अनुभव से डरता है।
जिसे लगे वो कभी नहीं हारा,
उसी ने शायद युद्ध ठीक से लड़ा नहीं।
जो दावा करे कि वो है सबसे सच्चा,
उसने शायद सच को कभी जीया नहीं।
जो हँसे और कहे “मैं निर्भय हूँ”,
उसका मन भीतर से काँपता है।
जो दिखे सबके सामने दृढ़,
अक्सर वही भीतर से टूटता है।
जो कहे “मुझे किसी की ज़रूरत नहीं”,
वही सबसे ज़्यादा तन्हा होता है यहाँ
जो बोले “मैं कभी राह नहीं खोता”,
वही सबसे ज़्यादा रास्ता भटकता है यहाँ।
जिसको लगे वो सबसे ज्ञानी है
उसने अब तक जीवन पढ़ा ही नहीं।
जो समझे ख़ुद को ही सच्चा धर्मी,
उसने शायद न्याय का अर्थ गढ़ा नहीं।
जो हर समय बोले “मैं ठीक हूँ”,
उसके भीतर कुछ टूटा रहता है अक्सर
जो दिखे सबसे ज़्यादा शांत,
वो मन ही मन रोता रहता है अक्सर।
इसलिए जो थोड़ा झुकता है
वो ही असली ऊँचाई पाता है यहाँ
जो कहे “मैं सीख रहा हूँ अब भी”,
वही जीवन को गहराई से निभाता है यहाँ।
पूर्ण होने का भ्रम ही सबसे बड़ा भार है,
अधूरे रहकर ही मनुष्य तैयार है।
अपूर्णता ही बनाती है हमें विनम्र,
पूर्ण तो केवल ईश्वर का व्यवहार है।