लहर ने जब बिखरते वक़्त मुड़ के पुल को देखा था
लहर ने जब बिखरते वक़्त मुड़ के पुल को देखा था
नदी के बहते पानी पर किसी का नाम लिक्खा था
अनोखा शख़्स था उस से मिलाया हाथ जब मैं ने
लगा जैसे कि उस की उँगलियों में दिल धड़कता था
उसी सूखे शजर के नीचे तेरी राह तकता हूँ
बिछड़ते वक़्त तू जिस से लिपट के ख़ूब रोया था
गली के एक घर में काँच की ऐसी भी खिड़की थी
सुब्ह होती थी जिस के खुलने पे सूरज निकलता था
किसी की बद-दुआ’ का है असर अब उड़ नहीं सकता
नहीं तो ये परिंदा आसमाँ से बात करता था
सजाए अपने पैरों पर महावर शाम बैठी थी
तसव्वुर में किसी की याद का दिन ढलने वाला था
पुरानी मेज़ की खोली दराज़ें तो हँसी आई
किसी के प्यार में हम ने छुपा के क्या क्या रक्खा था
उसे इस बात का एहसास अब भी सालता होगा
अगर मैं चाहता उस को हरा कर जीत सकता था
संदीप ठाकुर