एक भ्रम कि रिश्तें खरीदे जा सकते है....कुछ लोग ज़िंदगी भर पै

एक भ्रम कि रिश्तें खरीदे जा सकते है….कुछ लोग ज़िंदगी भर पैसे को ही बचाने और जोड़ने में लगे रहते हैं, ये सोचकर कि एक दिन सब कुछ उनके क़ब्ज़े में होगा – रिश्ते भी। लेकिन वे ये भूल जाते हैं कि रिश्ते दिल से बनते हैं, सौदे से नहीं।
पैसे से आप सिर्फ़ चीजें खरीद सकते हैं, अपनापन नहीं।और रिश्ते सौदे नहीं होते, जो खरीदे जाएं।वो तो महसूस किए जाते हैं, निभाए जाते हैं। जो इंसान रिश्तों से ज्यादा मायने अपने कमाए धन को देता है। उसी के आधार पर रिश्तों की कीमत तय करता है तो वो आखिर में रिश्तों के बाज़ार में खुद को ठगा सा महसूस करता है।
क्योंकि पैसे के आधार पर बनाए रिश्ते सिर्फ़ मशीन जैसे होते है। जितना डालोगे, उतना ही काम करेंगे।और फिर -जैसे जैसे उम्र ढलती है, इंसान को एहसास होता है कि दौलत के मद में उसने उन्हें खो दिया जो दौलत से ज्यादा क़ीमती थे, जो बिना शर्त साथ खड़े थे।और तब तक बहुत बार बहुत देर हो चुकी होती है।
और फिर ना रिश्तों में अपनापन बचता है। ना सामंजस्य।और ना साथ रहने की कोई गुंजाइश।
रिश्ते ‘इन्वेस्टमेंट’ नहीं, ‘इन्वोल्वमेंट’ मांगते हैं।