Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
8 Jun 2025 · 6 min read

*पारसी थिएटर के विकास में पंडित राधेश्याम कथावाचक का योगदान*

पारसी थिएटर के विकास में पंडित राधेश्याम कथावाचक का योगदान
🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂
पारसी रंगमंच (1850 – 1930) पर पंडित राधेश्याम कथावाचक के प्रवेश से पहले उर्दू का बोलबाला था। नाटकों की शालीनता पर भी पर्याप्त ध्यान नहीं था। 1913 में पारसी रंगमंच की प्रसिद्ध इकाई न्यू अल्फ्रेड कंपनी से पंडित राधेश्याम कथावाचक की ₹300 में नाटक की बात हुई। 1915 में कथावाचक जी ने वीर अभिमन्यु’ नाटक लिख लिया। 1916 में पहली बार यह नाटक खेला गया। जब 4 फरवरी 1916 को नाटक खेले जाने से दो दिन पहले उसकी रिहर्सल हुई, तो रंगमंच के प्रमुख स्तंभ सोराब जी का कहना था कि “अधिक हिंदी स्टेज पर पहुॅंचा कर हम परीक्षण कर रहे हैं। कर तो अच्छा ही रहे हैं, अब भगवान जाने”। (प्रष्ठ 43)

‘*वीर अभिमन्यु* नाटक ने रंगमंच के रिकॉर्ड तोड़ दिए। सबसे ज्यादा दर्शकों को आकर्षित करने वाला नाटक भी यही था और सत्साहित्य की दृष्टि से भी इसने झंडे गाड़ दिए। उस जमाने में शायद ही कोई क्लब ऐसा बचा होगा, जिसके मंच पर कथावाचक जी का ‘वीर अभिमन्यु’ नाटक न खेला गया हो। छपकर इसकी एक लाख प्रतियॉं बाजार में बिकीं । पंजाब विश्वविद्यालय ने इसे हिंदी भूषण और इंटरमीडिएट की कक्षाओं के कोर्स में लगाया।(प्रष्ठ 40, 61)

महाभारत में अभिमन्यु का प्रसंग छोटा अवश्य है लेकिन यह आकाश में बिजली की चमक की तरह संपूर्ण महाभारत पर भारी रहा। अभिमन्यु के चरित्र की तेजस्विता का मुकाबला कोई नहीं कर पाया। पं. राधेश्याम कथावाचक जी ने बड़ी मेहनत से यह नाटक तैयार किया। उन्होंने मैथिली शरण गुप्त का ‘जयद्रथ वध’ पढ़ा। मुरादाबाद के लाला शालिग्राम वैश्य का ‘अभिमन्यु’ नाटक भी पढ़ा। फिर इंडियन प्रेस की श्री द्विवेदी जी की अनुवाद की हुई ‘महाभारत’ पढ़ कर कथानक को अपने अनुसार ढाल कर एक महान ऐतिहासिक चरित्र को साहित्य के स्वर्णाक्षरों में ‘वीर अभिमन्यु’ नाटक के रूप में लिख दिया।

राधेश्याम रामायण के समानांतर ही कथावाचक जी का एक महत्वपूर्ण योगदान लोकचेतना के कार्यों से जोड़ने की दृष्टि से नाटक लिखने और खेलने की कला से भी रहा। उन्होंने पारसी रंगमंच पर प्रवेश किया। उनके द्वारा लिखित वीर अभिमन्यु और श्रवण कुमार नाटकों ने पारसी रंगमंच की दिशा और दशा ही बदल दी। जहॉं पहले उर्दू का साम्राज्य था, वहॉं अब विशुद्ध हिंदी का नाटक वीर अभिमन्यु न केवल खेला गया बल्कि सफल भी रहा। कथावाचक जी पारसी रंगमंच पर परोसे जाने वाली अश्लीलता और फूहड़पन से परिचित थे। यह कमजोरी दूर करना चाहते थे। पंडित राधेश्याम कथावाचक साहित्य के अग्रणी अध्ययनकर्ता हरिशंकर शर्मा के शब्दों में: “नारायण प्रसाद बेताब के ‘महाभारत’ और कथावाचक जी के ‘वीर अभिमन्यु’ नाटक ने पारसी रंगमंच की दिशा और दशा ही बदल दी। इसका परिणाम यह हुआ कि आगा हश्र कश्मीरी जैसे उर्दू-फारसी के रचनाकार को भी पौराणिक नाटकों की ओर आना पड़ा।” (प्रष्ठ 158-59)

हरिशंकर शर्मा ने कथावाचक जी के नाटकों में राष्ट्रीय चेतना और पुनरुत्थानवादी चेतना के स्वरों को महसूस किया है। हरिशंकर शर्मा की दृष्टि में श्रवण कुमार नाटक में जहॉं हिंदुत्व है, वहीं आर्य समाजी नजरिया भी है। ( प्रष्ठ 108)
एक अन्य स्थान पर हरिशंकर शर्मा लिखते हैं कि पारसी थिएटर से जुड़ने का कथावाचक जी का उद्देश्य यह था कि उन्होंने नाटकों को देशभक्ति, हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तानी के साथ संस्कार से जोड़ा। (प्रष्ठ 141)

मशरिकी हूर आजादी से पहले का लिखा और रंगमंच पर खेला गया नाटक है। यह उर्दू लिपि में लिखा गया था। इसका देवनागरी हिंदी में संस्करण भी प्रकाशित हुआ है। नाटक के सभी पात्र मुसलमान हैं। नाटक में सत्ताधारी पक्ष को खलनायक के रूप में दर्शाया गया है। उसके द्वारा भोगवादी तथा अनैतिक कार्यों से जुड़ाव प्रदर्शित करके जनता के मन में ऐसी सत्ता के विरुद्ध बगावत की भावना को स्वर दिया गया है।

पंडित राधेश्याम कथावाचक ‘हिंदी हिंदू हिंदुस्तान’ के ओजस्वी गायक के रूप में जाने जाते हैं। वीर अभिमन्यु आदि संस्कृति-प्रधान नाटकों के साथ-साथ उनकी कीर्ति का मुख्य आधार उनके द्वारा खड़ी बोली हिंदी में रचित राधेश्याम रामायण है। मशरिकी हूर के लेखन से कथावाचक जी के उर्दू भाषा पर अधिकार की बात जहां एक ओर सिद्ध हो रही है, वहीं दूसरी ओर मुसलमानों के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध संघर्ष को आगे बढ़ाने की उनकी योजना भी सामने आती है। नाटक से स्पष्ट है कि कथावाचक जी मुसलमान के साथ कंधे से कंधा मिलाकर देश की स्वतंत्रता के लिए कार्य करने के इच्छुक थे। उनकी भाषा में उर्दू का पुट प्रारंभ से ही विद्यमान रहा। राधेश्याम रामायण में उन्होंने उर्दू के प्रचलित शब्दों को प्रयोग में लाने से कहीं भी परहेज नहीं किया। उनका मानना था कि भाषा में प्रवाह होना चाहिए। अतः इस कार्य में उर्दू के शब्दों का प्रयोग बाधक नहीं हो सकता। मशरिकी हूर एक काल्पनिक कथा है। इसमें एक मुसलमान शासक के विरुद्ध उसकी ही रियासत की एक नवयुवती हमीदा पुरुषों के समान वीर वस्त्र धारण करके सत्ता पलटने का संघर्ष संचालित करती है। उसे तलवार चलाना आता है और युद्ध में पारंगत है। अपनी सूझबूझ के बल पर वह लक्ष्य में सफल होती है।

हमीदा के माध्यम से कथावाचक जी ने एक प्रकार से मुस्लिम युवक-युवतियों को अंग्रेजी शासन के विरुद्ध खुलकर संघर्ष करने के लिए न केवल प्रोत्साहित किया अपितु उनके साथ अपनी लेखकीय सहभागिता भी प्रदर्शित की। इससे स्वतंत्रता आंदोलन को मजबूती प्रदान करने में कथावाचक जी का अपना विशिष्ट योगदान कहा जा सकता है। सबसे बड़ी बात यह रही कि मशरिकी हूर में कहीं भी हिंदू-मुस्लिम एकता का नारा नहीं है। लेकिन क्योंकि यह कथावाचक जी की कृति है, अतः स्वाभाविक रूप से इसका प्रभाव हिंदू मुस्लिम एकता के लिए एक मील का पत्थर साबित हुआ।

नाटक लिखने में कथावाचक जी माहिर थे। उन्हें मंच पर नाटक खेलने की कला आती थी। मास्टर फिदा हुसैन नरसी जैसे मॅंजे हुए कलाकार एक प्रकार से उनकी ही देन थे। न्यू अल्फ्रेड नाटक कंपनी की अग्रणी प्रतिष्ठा थी। जब उसने कथावाचक जी से उर्दू नाटक की फरमाइश की तो कथावाचक जी ने प्रसन्नता पूर्वक इस कार्य को अपने हाथ में लिया। 1926 में नाटक मंचित हुआ तथा 1927 में प्रकाशित भी हो गया। 1926 के दौर में जहां कुछ लोग भारत विभाजन की दिशा में सोचने लगे थे, वहीं दूसरी ओर पंडित राधेश्याम कथावाचक जी का ‘मशरिकी हूर’ नाटक लिखने का उद्देश्य इस विभाजन को हर हालत में रोकना था । इसके लिए उन्होंने ठेठ मुसलमानी परिवेश, पात्र और भाषा को मन में बिठाकर देशभक्ति का ऐसा रंग जमाया कि अंग्रेज कसमसा कर रह गए और उनके खिलाफ कुछ कर भी नहीं सके। ऊपर से देखने पर नाटक एक काल्पनिक मुस्लिम शासक के विरुद्ध संघर्ष था, लेकिन 1926 का परिवेश साफ-साफ चित्रित कर रहा है कि यह अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध मुस्लिम बगावत को स्वर देने के लिए किया गया महान कार्य था।

नाटक में प्रवाह है। प्रवाह भला क्यों न होता ! यह नाटक केवल पुस्तकों में लिखने के लिए नहीं लिखा गया। यह तो मंच पर खेलने के लिए रचा गया था। इसीलिए संवाद न तो उबाऊ हैं न उपदेशात्मकता लिए हुए बहुत लंबे चौड़े हैं।

परिवर्तन नाटक बहुमुखी प्रतिभा के धनी पंडित राधेश्याम कथावाचक की 1914 ईसवी की अपने आप में एक क्रांतिकारी कृति है। इसे पहली बार मार्च 1925 में न्यू अल्फ्रेड नाटक कंपनी ऑफ बंबई द्वारा पारसी थिएटर के रंगमंच पर दिल्ली में खेला गया था। नाटक वैश्याओं की समस्याओं को लेकर है। समाज में उनके प्रति दृष्टिकोण तथा प्रभाव को इसमें दर्शाया गया है। नए दौर में उस दृष्टिकोण में कैसा परिवर्तन आना चाहिए, इस प्रश्न को नाटक के द्वारा कथावाचक जी ने सुगढ़़ता से दिखलाया है।

श्रवण कुमार नाटक पंडित राधेश्याम कथावाचक द्वारा रचित महत्वपूर्ण कृति है। इस नाटक में कथावाचक जी ने भारत के एक अत्यंत प्राचीन प्रसंग श्रवण कुमार की पितृ-मातृ भक्ति को आधार बनाया है। नाटक धार्मिक सामाजिक और ऐतिहासिक है। इस नाटक के माध्यम से कथावाचक जी ने श्रेष्ठ जीवन मूल्यों को प्रस्तुत किया है। सब प्रकार से माता-पिता की सेवा को ही महान ध्येय के रूप में प्रस्तुत करने में उन्हें सफलता मिली है।

कुल मिलाकर पंडित राधेश्याम कथावाचक ने पारसी रंगमंच के विचारों को सनातन संस्कृति के साथ जोड़ने का अद्भुत ऐतिहासिक कार्य किया। उनके नाटक जनता के द्वारा पसंद किए गए और रंगमंच पर छा गए। उर्दू पर भी कथावाचक जी का पूर्ण अधिकार था। इसलिए उस समय के पारसी रंगमंच के साथ एकरसता स्थापित करते हुए पारसी रंगमंच में प्रवेश करने में उन्हें दिक्कत नहीं आई। विशुद्ध हिंदी भाषा को पारसी रंगमंच पर लोकप्रिय और प्रतिष्ठित करने का श्रेय भी पंडित राधेश्याम कथा वाचक जी को ही जाता है। आगा हश्र कश्मीरी और नारायण प्रसाद बेताब के साथ मिलकर पंडित राधेश्याम कथावाचक ने पारसी रंगमंच की जो त्रयी निर्मित की, वह इतिहास में बेजोड़ कही जा सकती है।
🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂
संदर्भ:
हरिशंकर शर्मा द्वारा संपादित पंडित राधेश्याम कथावाचक की विभिन्न नाटक पुस्तकें
🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂
लेखक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451

Loading...