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8 Jun 2025 · 3 min read

पत्रकारिता के 45 वर्ष

संस्मरण-2
मैं अखंड प्रताप बनना चाहता हूं

सामने एक नौजवान बैठा था। हाथ में एक फाइल थी। इटरव्यू हो रहे थे। वो अपनी प्रतीक्षा कर रहा था। आखिर बारी आ गई।
बॉस: अखबार में क्यों आना चाहते हो
– देखने के लिए। अनुभव के लिए।
बॉस: तो हमारी परीक्षा लोगे
जी नहीं
बॉस : अच्छा यह बताओ, क्या बनना चाहते हो
अखंड प्रताप सिंह
बॉस: यह तो तुम्हारा नाम है
जी
बॉस: तुम्हारा कोई आदर्श…?
मेरी मां है। उसी ने कहा था..अखंड प्रताप सिंह बनो।
बॉस: अब क्या इरादा है..?
अखंड प्रताप सिंह बनना।
बॉस: मगर कैसे..?
आप कुछ समय बाद ही देख लेंगे।

बॉस जवाब और बेबाकी से प्रसन्न हुए। खासकर इस बात से कि ये अखंड प्रताप सिंह बनना चाहता है। निर्धारित वेतन से उसे दो हजार रुपए बढ़ाकर रख लिया गया। काम अच्छा था। मेहनती था। छह महीने बाद उसने नौकरी छोड़ दी। बाद में पता चला कि वह राजपत्रित अधिकारी हो गया। छह महीने वह शांत नहीं बैठा। वह स्कोप तलाशता रहा। दिन में काम करता। और देर रात काम निबटाकर पढ़ने बैठ जाता। आखिरकार उसकी मेहनत रंग लाई। वह अखंड प्रताप सिंह बन गया।
पत्रकारिता जीवन में बहुत से बच्चे ऐसे भी थे जिनका कोई लक्ष्य नहीं होता था। ज्यादातर दो बातें ही बोलते हैं भ्रष्टाचार मिटाना है। सामाजिक सुधार करना है। यह बात 80 के दशक में भी कही जाती थी। आज भी कही जाती है। यानि दोनों बातें शाश्वत हैं। जो हो नहीं सकता वो कहो।

इंटरव्यू स्टेट्स से जुड़ा
एचआर आने के बाद बहुत कुछ बदल गया है। अब कंपनी इनपुट और आउटपुट देखती हैं। अब पहला सवाल होता है…हम आपको क्यों लें? आपकी खूबी और कमजोरी क्या है? घर में कौन कौन हैं? क्या क्या करते हैं? घर कैसे चलता है? मानो इंटरव्यू बच्चे का नहीं, उसके स्टेट्स का हो रहा है। घर अच्छा है, तो चलेगा। खराब है या निम्न आय वर्ग का है तो नहीं चलेगा।
पहले पत्रकारिता में तीन परिस्थितियों में लोग आते थे। मजबूरीवश। साहित्यवश (यानी लिखने पढ़ने का शौक)। ग्लैमर के कारण। तब अखबारों का क्रेज था। उसूल था। सत्तर अस्सी के दशक में रेप की खबरें नहीं छपती थीं। माना जाता था इसका समाज पर गलत असर पड़ेगा। चार पन्नों में सारी महत्वपूर्ण खबरें आ जाती थीं। अब 20 पन्नों में भी नहीं आतीं। विज्ञान कहता है कि हर घटना दुर्घटना मानवीय आचरण और शब्द लौट कर आते हैं। 80 को देखें तो 2025 अतीत ही लगता है।

बहुत कुछ बदल गया
क्या बदला? हमारी नैतिकता। हमारा आचरण। हमारे अखबार। हमारा पेशा। हमारा समर्पण। लगन और कार्य निष्ठा। आज का नौजवान हांफ रहा है। जरा सा काम करते ही थक रहा है। हर भारतवासी के दिल में एक अलग अखबार छप रहा है। एक चैनल चल रहा है। वह जो देखना और सुनना चाहता है, वह कहीं है ही नहीं। लक्ष्मण रेखाएं हैं। दिल में उबाल है। शब्द मौन हैं। कभी हमको भी पत्रकारिता दिवस उत्सव लगता था। यह उत्सव कहां गया?

पहले सीखने और सिखाने का दौर था
पहले कोई सिखाता था, बताता था तो बच्चे मान जाते थे। आज तो सब ऑल राउंडर आते हैं। भाषा और वर्तनी पर क्या कहें? एक और बदलाव कहना चाहता हूं। पहले अखबारों में साहित्यकार आते थे। क्लिष्ट शब्दों की भरमार होती थी लेकिन भाषा विज्ञान का कॉलम भी नियमित चलता था। बहुत सीखने को मिलता था। आज यह सब कहां है। पत्रकारिता के बहुत से कोर्स हैं। संस्थान हैं। डिग्रियां हैं। लेकिन खबर पिरोना दूभर है।

आंखों में है वह कॉपी
फिलहाल मैं दो साथियों का जिक्र करना चाहूंगा। देहरादून के साथी #सुशील उपाध्याय। देश विदेश के मामलों पर गहरी पकड़। शिष्ट भाषा। प्रचुर ज्ञान। इनसे हमको भी सीखने का अवसर मिला। दूसरे साथी #प्रमोद शुक्ला। वह ज्योतिषी हैं। लेखक बहुत बड़े। कांवड़ यात्रा का उन जैसा वृतांत आज तक मेरी आंखों से नहीं गुजरा।
मेरे पल पल के साथी और भी हैं। समय समय पर इनका भी संस्मरण लिखूंगा।
अगर इतने बरस बाद भी मैं इनको संदर्भित कर रहा हूं तो कोई कारण होगा? मित्रता के साथ विशिष्टता और शिष्टता।
जब एक ही खबर 9 बार लिखी
एक संपादक जी ने मुझसे एक ही खबर 9 बार लिखवाई। प्रकाशित हुई पहली वाली। मैने पूछा तो बोल पड़े…मैं देखना चाहता था तुम एक ही खबर कितने कोण से लिख सकते हो? बताइए, अखंड प्रताप सिंह ने क्या गलत कहा था।

सूर्यकांत

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