"मैं—47 बरस का एक सवाल
“मैं—47 बरस का एक सवाल”
छब्बीस हज़ार से ज़्यादा शामें देखीं हैं मैंने,
पर एक आज की शाम कुछ पूछती है मुझसे…
“क्या जिया तूने सच में?”
“या बस जीता चला गया…?”
छह जून की वो रात थी,
जब सिरोंज की मिट्टी ने मेरा पहला रोना सुना।
और माँ की गोद में सारा ब्रह्मांड सिमट आया,
नानी की ममता, दादी की दुआ,
और पिता की आँखों में चमकता सपना—
बस, वहीं से शुरू हुई मेरी कहानी।
याद नहीं कौन पहले उठा मुझे,
पर ये ज़रूर याद है
कि बचपन की हथेली पर
रिश्तों का साया था —
भाई की शरारत, बहनों की हँसी,
और माँ के आँचल में छिपी सदी भर की शांति।
कभी स्कूल की राह में ठोकरें लगीं,
कभी जीवन ने ज़मीन चटाई,
पर हर बार उठकर खड़ा हुआ,
क्योंकि पीछे से किसी ने कहा था—
“हम हैं न!”
किशोरावस्था आई तो सपनों ने पंख माँगे,
पर ज़िम्मेदारियों ने कहा—
“पहले कंधे मज़बूत कर।”
और मैंने सिर झुका लिया…
हर मोड़ पर समझौते किए,
हर मुस्कान के पीछे कोई बात छुपा ली।
और आज…
जब 47 बरस का हूँ—
तो ये उम्र नहीं लगती,
बस जैसे कल की ही बात हो।
इतनी तेज़ दौड़ थी कि
खुद को पीछे छोड़ आया हूँ कहीं।
आइने में देखता हूँ तो एक चेहरा दिखता है,
जिसकी आँखों में सवाल हैं—
“तू कब जीया था अपने लिए?”
आज इस जन्मदिन पर
कोई तामझाम नहीं चाहिए…
बस कुछ पल चाहिए खुद से मिलने के,
कुछ आँसू जो अंदर रुके हैं,
उन्हें बहने की इज़ाजत चाहिए।
मैं जानता हूँ,
सब कुछ परिपूर्ण नहीं था…
पर अधूरेपन में भी एक संगीत था—
जिसे सिर्फ मैंने सुना।
तो आज…
इस शाम को गवाह मान,
मैं खुद से कहता हूँ—
“मैं जिया हूँ… सच्चे रिश्तों में,
संघर्षों में,
और हर उस पल में
जहाँ मैंने मुस्कुराना नहीं छोड़ा।”
मुकेश शर्मा विदिशा