दो जून की रोटी
दो जून की रोटी जहां में,
मिलती सखी सबको नहीं।
दिन रात बहता है पसीना,
तब हाथ आ पाती कहीं।
मँहगाई का आलम ये है,
बढ़ती ही देखो जाती।
मजदूरी जितनी भी मिलती,
पूरी वह कब हो पाती।
जिनपर काम नहीं है कोई,
कैसे उनका दिन कटता।
दिन में भी तारे दिखते है,
मुश्किल से है वह हटता।
दो जून सभी को रोटी पाना,
सहज कहांँ अब होता है।
कैसे कैसे बोझ मनुज ये,
अपने ऊपर नित ढोता है।
सूखी रोटी पानी से ही,
खाकर वो सो जाता है।
भोजन में सब्जी तो साथी
कभी कभी ही पाता है।
आधी आधी रोटी खाकर
कुछ बच्चे सोते रातों में।
नींद कहांँ आँखों में आती
कटती रातें बस बातों में।
यह छोटा सा है पेट मगर
कभी नहीं भर पाता है।।
मंँहगाई का राक्षस देखो
मानव को नित खाता है।
डॉ सरला सिंह “स्निग्धा”
दिल्ली