साहित्य सेवा — माँ सरस्वती की साधना
साहित्य केवल शब्दों का संकलन नहीं, वह मानवता की आत्मा की अभिव्यक्ति है। जब हम साहित्य की सेवा करते हैं, तब वास्तव में हम मां सरस्वती की सेवा कर रहे होते हैं। यह सेवा न किसी यश की कामना से होनी चाहिए, न ही किसी गर्व या अहंकार की भावना से। सच्चे साहित्यकार की पहचान उसके भीतर बसे उन मानवीय मूल्यों से होती है, जो समाज को दिशा देते हैं — करुणा, दया, भक्ति, और सुधार की भावना।
भाषा किसी राष्ट्र की आत्मा होती है। जब कोई भाषा का प्रचार करता है, उसे केवल भाषायी आंदोलन नहीं समझना चाहिए, वह एक देशभक्ति का कार्य है। भाषा को जीवंत रखना, उसके माध्यम से संस्कृति और परंपराओं को नई पीढ़ी तक पहुंचाना, राष्ट्र निर्माण का एक अनिवार्य अंग है। जब हम अपनी भाषा को महत्व देते हैं, तो हम अपनी जड़ों को सींचते हैं।
साहित्यकार का कार्य केवल लिखना नहीं है, बल्कि वह समाज का दर्पण होता है। उसका लेखन समाज के भीतर छिपे दर्द को उजागर करता है, बुराइयों पर चोट करता है और अच्छाइयों को प्रोत्साहित करता है। उसके शब्दों में केवल भावनाएं नहीं, बल्कि परिवर्तन की शक्ति होती है।
सच्चा साहित्यकार कभी अभिमान नहीं करता। उसका लेखन एक तपस्या की तरह होता है, जिसमें वह स्वयं को मिटाकर समाज के लिए प्रकाश फैलाता है। वह भक्ति करता है — न केवल देवी सरस्वती की, बल्कि मानवता की। उसके विचारों में अच्छाई होती है, उसके भावों में सुधार की ललक होती है।
आज जब समाज अनेक दिशाओं में बिखर रहा है, तब साहित्य ही वह सूत्र है जो सबको जोड़ सकता है। इसीलिए साहित्य की सेवा को केवल रचनात्मक कार्य न समझा जाए, यह एक आध्यात्मिक यात्रा है — एक ऐसी यात्रा जिसमें लेखक स्वयं से ऊपर उठकर समाज और राष्ट्र के लिए लिखता है।
निष्कर्षतः, साहित्य सेवा वास्तव में सरस्वती की सेवा है, और यह सेवा तभी सार्थक होती है जब वह अहंकार रहित, निष्कलुष और लोकमंगल की भावना से ओत-प्रोत हो। ऐसे साहित्यकार ही सच्चे अर्थों में समाज के निर्माता होते हैं।
लेखक: डॉ गुंडाल विजय कुमार
हैदराबाद, तेलंगाना