*लघु कथा: "चुप्पी की भाषा"*

“चुप्पी की भाषा”
रीमा अपने बेटे आरव को लेकर बहुत चिंतित थी। 15 साल का आरव अब पहले जैसा नहीं रहा। न बात करता था, न मुस्कुराता । स्कूल से लौटकर सीधा कमरे में घुस जाता और दरवाज़ा बंद कर लेता। रीमा रोज़ उसके पास जाती, कुछ पूछती, पर जवाब में बस “ठीक हूँ” सुनने को मिलता।
एक शाम रीमा ने आरव के कमरे का दरवाज़ा खटखटाया।
“आरव, ज़रा बाहर आओ, तुम्हें कुछ दिखाना है।”
आरव ने बेमन से दरवाज़ा खोला। माँ ने उसका हाथ पकड़ा और बालकनी में ले गई।
वहाँ एक छोटा-सा पौधा रखा था – मुरझाया हुआ, सूखा-सूखा।
“देखो इसे। रोज़ पानी नहीं मिलेगा, धूप नहीं मिलेगी, तो ये चुपचाप मुरझा जाता है। बोलता तो कुछ नहीं, पर धीरे-धीरे मरने लगता है।”
आरव ने ध्यान से पौधे को देखा। फिर माँ की ओर देखा – पहली बार उसकी आँखों में आंसू थे।
“माँ… मुझे नहीं पता क्यों सब उलझा लगता है। गुस्सा आता है, फिर अकेलापन महसूस होता है।”
रीमा ने उसे गले लगा लिया।
“बेटा, मैं बस तुम्हारी चुप्पी को समझना चाहती थी। अब से हम मिलकर इस पौधे की तरह तुम्हारी परेशानियों की देखभाल करेंगे।”
उस दिन के बाद आरव की चुप्पी टूट गई। उसने बोलना शुरू किया – और रीमा ने सिर्फ सुना, बिना टोके, बिना टाले।
धीरे धीरे दोनों के बीच एक बेहतरीन दोस्ती का रिश्ता बन गया। अब आरव को उलझन नहीं महसूस होती क्योंकि कोई है जो उसकी सारी उलझन सारी दुविधा का समाधान कर देता। अब सब कुछ सामान्य सा लगने लगा। रीमा आश्वस्त हो गई, और उसके घर का फूल मुरझाने से बच गया।
सीख: किशोरावस्था में बच्चे अक्सर चुप हो जाते हैं, लेकिन उनकी चुप्पी को समझना और बिना जज किए सुनना ही सबसे बड़ी पेरेंटिंग होती है।