युद्ध कहीं का कैसा भी हो,

युद्ध कहीं का कैसा भी हो,
हानि बहुत पहुंचाता है।
दोषी जन के साथ साथ,
निर्दोष भी मारा जाता है।
किसी का पिता चला जाता तो,
किसी का मिट जाता सिंदूर।
किसी का भाई,पूत विनाशता,
पन बनता जलता तंदूर।
उतने प्यारे सब के सब हैं,
इधर के हों या उधर हों।
दोनों ओर कराह एक सी,
इधर की हो या उधर की हो।
तार तार होती मानवता,
युद्ध बनाये न कोइ काम।
जितना जल्दी संभव होवे,
‘सृजन’ कर दो युद्ध विराम।