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14 May 2025 · 17 min read

पराजय में विजय

हालात मनुष्य को बहुत कुछ सीखने को बाध्य कर देते हैं। जिस जिंदगी में संघर्ष और विरोधी नहीं होते, वह न तो प्रगतिशील होती है और न ही प्रेरणादायक। संघर्ष ही मनुष्य के जीवन को निखारता है।
रामाशंकर की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। मैट्रिक की परीक्षा पास किए उसे कुछ ही दिन हुए थे। एक दिन घर में एक छोटी-सी बात ने ऐसा विवाद खड़ा कर दिया कि उसे अपना घर छोड़कर भटकने के लिए मजबूर होना पड़ा। रामाशंकर का छोटा भाई, अभय शंकर, हमेशा उससे झगड़ा करता रहता था। रामा शंकर, बड़ा भाई होने के नाते, उसकी हर गलती को नजरअंदाज कर देता था ।
लेकिन उस दिन, अभय ने सारी हदें पार कर दी थीं। उसने रामाशंकर के साथ अमानवीय व्यवहार किया। फिर भी, पिता राधाकांत जी ने अभय को डाँटने के बजाय रामाशंकर को फटकार लगा दी। गुस्से में उन्होंने यहाँ तक कह दिया, “जहाँ जाना है, जाओ। अभी के अभी मेरे घर से दफा हो जाओ।” पिता का यह बेमतलब फटकार रामाशंकर के दिल पर इतना चोट पहुंचाया कि वह सहन नहीं कर पाया।
उसकी माँ, शकुंतला देवी, जानती थीं कि अभय गलत करता है फिरभी रामाशंकर को ही डाँट का शिकार बनाया जाता है । माँ के दिल में हमेशा इस अन्याय का दर्द रहता था। परन्तु खुलकर वह इसका विरोध नहीं कर पाती थी| गाँव के लोग भी कहते थे कि अभय के व्यवहार से एक दिन-न एक दिन यह घर बर्बाद होकर रहेगा।
घटना ग्रीष्म ऋतु की थी। उमस और गर्मी के मारे सभी परेशान थे। बिजली कटी हुई थी, और हर कोई अपने-अपने तरीके से गर्मी से राहत पाने की कोशिश कर रहा था। लेकिन रामाशंकर को इन चीजों की कोई परवाह नहीं थी। वह क्रोध और दुख में डूबा हुआ था। जब दिल रोता है तब हंसती हुई बाहरी दुनिया की अनुभूति न्यून हो जाती है | पिता की फटकार सुनने के बाद, वह चुपचाप अपने कमरे में चला गया।
अंदर जाकर उसने अपना पुराना बैग निकाला। उसमें अपनी कुछ जरूरी किताबें, स्कूल का मार्कशीट, सर्टिफिकेट आदि रखा। बैग में कुछ कपड़े और बिछाने वाला एक चादर भी रख ली। जो भी पैसे उसके पास था, ले लिया और पिछवाड़े के रास्ते घर से निकल गया।
अंधेरा घिर चुका था। रामाशंकर सीधे पटना जंक्सन की ओर चल दिया। स्टेशन पर पहुँचते ही उसके मन में एक मात्र सवाल विशालता के साथ खडा था —जाएँ तो जाएँ कहाँ? उसने निर्णय लिया दिल्ली चलते हैं, सूना है यह बहुत बड़ा शहर है| जो वहां जाता है कुछ न कुछ काम मिल ही जाता है| जाते-जाते पूछताछ खिड़की पर गया| वहां पहले से कुछ और यात्री खड़े थे| काउंटर पर जाकर उसने पूछा, “दिल्ली जाने वाली गाड़ी कब मिलेगी?”
“सुबह 4:40 पर,खिड़की के अन्दर से आवाज आयी।
रामाशंकर के चेहरे पर निराशा छा गई। उसने प्रतीक्षालय के बाहर खुले मैदान में अपना बिस्तर बिछाया और लेट गया। आकाश में अनगिनत तारे झिलमिला रहे थे। हवा थोड़ी ठंडी हो गई थी, लेकिन रामाशंकर के मन में उथल-पुथल मची थी।
आँखों से आँसू बहते जा रहे थे। वह सोचने लगा—घर लौट जाऊँ? या अपनी जीवन लीला समाप्त कर लूँ? फिर विचार आया, अगर घर लौट गया तो खुद को कमजोर साबित कर दूँगा। अगर जीवन लीला ख़त्म कर दिया तो लोग मुझे कायर और बुजदिल कहेंगे| इससे बेहतर है जिन्दगी को परखना| जिन्दगी क्या- क्या नसीब कराती है उसका भी तो अनुभव जरूरी है| ज्यादा से ज्यादा क्या होगा- जीने का रास्ता खोजूंगा, भटकूंगा और क्या ? भटकना ही है तो क्यों न किसी बड़े शहर में भटकूँ किसी बड़े शहर में जाकर संघर्ष करूँ? जीवन लीला समाप्त करना बुजदिलों की निशानी है,ऐसा लोग कहते हैं|सोचते –सोचते उसने अपनी आँखें मूंद ली लेकिन मन को नहीं मूँद सका |
मन बार-बार डराता। वह सोचने लगा—दिल्ली जाने के लिए पैसे नहीं हैं। बिना टिकट ट्रेन में चढ़ूँ? क्या होगा अगर पकड़ा गया? फिर मन ने दिलासा दिया, “भगवान पर भरोसा रख। टीटीई को सच्चाई बता देना। वो छोड़ देगा।”
उस रात, उसने फैसला किया—अब संघर्ष करूंगा और जब तक सफल नहीं हो जाऊँगा, घर वापस नहीं जाऊँगा।
अभी आँख लग ही रही थी कि मच्छरों का उत्पात शुरू हो गया। रामाशंकर ने आँखें बंद रखने की कोशिश की, लेकिन कभी कोई मच्छर पैर के पास मंडराता, तो कभी कान के पास भनभनाता। उसकी नींद बार-बार टूट जाती। स्टेशन पर गाड़ियों की घोषणाएँ और आसपास के यात्रियों की हलचल से भी उसे परेशानी थी ।
कभी-कभी उसे लगता कि उसके पिता उसकी बाँह पकड़कर उठा रहे हैं और कह रहे हैं, “यहाँ क्या कर रहा है, चलो, घर चलो।” जब-जब झपकी लगती उसे ऐसा लगने लगता था| इन खयालों के बीच, कब भोर हो गई, उसे पता ही नहीं चला।
“अटेंशन प्लीज, पटना से मुगलसराय, इलाहाबाद, कानपुर, अलीगढ़ होते हुए नई दिल्ली जाने वाली पटना-नई दिल्ली एक्सप्रेस दो नंबर प्लेटफॉर्म पर आ रही है।” जैसे ही वह इस घोषणा को सूना वह अन्दर से हिल गया,घबरा गया। भगवान का नाम लिया और सीधे प्लेटफोर्म पर दौड़े-दौड़े आ गया|
जब वह प्लेटफोर्म पर आया वहां काफी भीड़ दिखी | डिब्बा में चढने के लिए यात्रियों की मारामारी थी| सामान्य डिब्बा में हवा घुसने की भी जगह नहीं थी फिरभी उसमे यात्री घुसने के लिए मशक्कत कर रहे थे| एसी या आरक्षित डिब्बों का उसे कोई अंदाजा नहीं था। जिस डिब्बे में कम लोगों को देखा उसी पर भगवान भरोसे चढ़ गया| उसे आश्चर्य हुआ उसमें उतनी भीड़ इसमें इतनी कम ! रातभर रोने के कारण उसकी आँखें सूजी हुई थीं साथ में रात भर की उजगी भी थी ।
सामने बैठा एक यात्री उसकी हालत देखकर पूछ बैठा,
“तुम अकेले हो?”
“जी, हाँ,” रामाशंकर ने धीमी, रुआंसी आवाज में जवाब दिया।
“टिकट है?”
“जी, नहीं।”
“कहाँ जाओगे?”
“दिल्ली।”
“वहाँ कोई है तुम्हारा?”
“जी, नहीं।” इतना कहते ही वह फूट-फूटकर रोने लगा।
गाड़ी चल दी थी। वह यात्री उसे दिलासा देते हुए बोला, “चुप हो जाओ, सब ठीक हो जाएगा। भगवान पर भरोसा रखो।” उसने अपने झोले से चार पूड़ियाँ और थोड़ी भुजिया निकाली और रामाशंकर को देते हुए कहा, “कल से भूखे हो, इसे खा लो।”
रामाशंकर को उस यात्री में भगवान का रूप दिखने लगा। उसने दोनों हाथ से खाना लिया| अभी पहला निबाला लिया ही था कि एक उजले पैंट, काले कोट और हाथ में कागजों का पुलिंदा लिए टीटीई (ट्रेन टिकट इंस्पेक्टर) आ पहुँचा।
“तुम्हारा टिकट?” टीटीई ने पूछा।
“जी, मेरे पास टिकट नहीं है,” रामाशंकर ने सिर झुकाते हुए कहा।
“तो गाड़ी में कैसे चढ़े?”
“मुझे माफ कर दीजिए, या फिर जेल भेज दीजिए। दोनों में मेरी भलाई होगी। छोड़ देंगे तो संघर्ष करके खाऊँगा, और जेल भेज देंगे तो बिना संघर्ष के।” इतना कहकर वह टी.टी.ई. का पैर पकड़ लिया|
टीटीई उसकी मासूमियत और ईमानदारी भरी जबाब से दंग रह गया| उसे बच्चे की हालत देखकर हृदय दयार्द्र हो गया। इस बीच वह यात्री, जिसने रामाशंकर को खाना दिया था, बोला, “यह बच्चा घर से भाग आया है। इसे सहारे की ज़रूरत है। इसका टिकट बना दीजिए, पैसे मैं दे दूँगा।”
टीटीई ने मुस्कुराते हुए कहा, “ठीक है। मैं इसे संघर्ष करके जीने का मौका देता हूँ। इसे यहाँ बैठने दो। दिल्ली तक इसका ध्यान रखूँगा। आगे आप इसका ख्याल रखना।”
फिर उसने उस यात्री से कहा, “आप जैसे सहृदय लोगों की वजह से यह दुनिया चल रही है। आपको राशि देने की जरूरत नहीं है। दिल्ली तक मैं इसे सपोर्ट करूँगा।”
ट्रेन पटरियों पर सरपट दौड़ रही थी और रामाशंकर के मन में उम्मीद की किरण जगने लगी थी। उधर, रामाशंकर के घरवाले परेशान थे। उन्होंने पूरी रात उसकी खोजबीन की, लेकिन वह कहीं नहीं मिला। गाँव में किसी ने भी यह नहीं सोचा होगा कि इतना छोटा बच्चा इतनी बड़ी जगह, दिल्ली का रुख कर लेगा।
घर पर सभी परेशान थे। खोजबीन जारी थी। इसी दौरान रामाशंकर के पिता राधाकांत जी बोले, “देखना, जब भूख की मार पड़ेगी, लोगों के धक्के खाएगा, दिमाग ठिकाने लगेगा तब दो चार दिन में वह खुद ही लौट आएगा।”
शकुंतला देवी, जो अब तक चुप थीं, उनकी बात सुनकर गुस्से में बोलीं, “आप हमेशा उसे कमजोर समझते थे। छोटी-छोटी बातों पर मारते-डांटते थे। उसकी गलती हो या न हो, हर बार उसे ही दोषी ठहराते थे। अब देख लिया न? मैं जानती हूँ, मेरा रामाशंकर ऐसा नहीं है। वह लौटेगा, तो कामयाब होकर ही लौटेगा। वह हार मानने वालों में से नहीं है।”
राधाकांत जी ने उनकी बात को अनर्गल मानते हुए आगे कहा, “हो सकता है किसी रिश्तेदार के यहाँ चला गया हो। खोजबीन जारी रखनी चाहिए।”
उनका बड़ा बेटा अभय भी पिता जी के सुर में सुर मिलाया, “हाँ, पापा, आप सही कह रहे हैं। भैया को थोड़ा अनुभव होगा, तो वह खुद वापस आ जाएगा।”
इधर, रामाशंकर की ट्रेन दिल्ली पहुँचने वाली थी। जैसे-जैसे ट्रेन दिल्ली के करीब आ रही थी, वैसे-वैसे रामाशंकर के मन में बेचैनी बढ़ रही थी। “स्टेशन पर उतरकर कहाँ जाऊँगा? क्या करूँगा? न कोई ठौर, न कोई ठिकाना।” वह इन्हीं खयालों में डूबा था कि सामने बैठे यात्री ने उसे टोका,
“देखो, अब स्टेशन आने वाला है। तुम्हारा यहाँ कोई जान-पहचान वाला है?”
“नहीं,” रामाशंकर ने धीमी आवाज में कहा।
“तो कहाँ जाओगे?”
“पता नहीं। किस्मत जहां ले जाए।”
वह यात्री सहानुभूति दिखलाते हुए बोला, “तुम मेरे साथ चलो। मेरे यहाँ रहना-खाना हो जाएगा। बस तुम्हे मेरे व्यापार में हिसाब-किताब के काम में मदद करनी होगी।”
रामाशंकर की आँखों में चमक आ गई। उसने कहा, “हाँ, हाँ मैं चलूँगा। आप तो मेरे लिए भगवान से भी बढ़कर हैं।”
स्टेशन पर उतरकर वह व्यक्ति रामा शंकर के साथ अपने घर की ओर चल दिया —एक इंसानियत की राह पर और दूसरा अपनी तकदीर की तलाश के पथ पर।
कुछ वर्षों बाद, रामाशंकर दिल्ली के एक होटल में अपने दो साथियों के साथ खाना खा रहा था और अपने साथियों के साथ बातचीत कर रहा था। वहां उसी होटल में एक युवक उसे बार-बार घूर रहा था। वह सोच रहा था, “यह रामाशंकर ही है या कोई और? देखने में तो वैसा ही लगता है। कैसे पूछूँ?”
खाना खाते-खाते जब रामाशंकर की भी नजर उस युवक पर पडी तो वह खुद उसके पास गया और बोला, “माफ कीजिए, आपका नाम सुरक्षित तो नहीं ?” बहुत दिन के बाद दोनों का चेहरा बदल गया था|
युवक मुस्कुराते हुए उठा, “अरे, रामाशंकर! मैं बहुत देर से तुम्हें देख रहा था, लेकिन टोका नहीं। बड़े शहर में किसी और के होने का भी शक था। आठ साल बाद देख रहा हूँ, न!”
रामाशंकर उसे गले लगाते हुए कहा, “आओ, अब हम एक ही टेबल पर खाना खाते हैं।”
“लेकिन ये दोनों?” सुरक्षित ने उसके साथियों की ओर इशारा किया।
“ये मेरे जूनियर्स हैं।” फिर रामा शंकर ने सुरक्षित का परिचय उन दोनों से कराया और कहा कि यह मेरा गाँव का साथी है। वेटर को इशारा करके सुरक्षित का प्लेट अपने टेबल पर मंगवा लिया और चारो एक ही टेबल पर खाने लगे|
खाने के दौरान सुरक्षित ने पूछा, “तुम यहाँ कैसे?”
रामाशंकर ने जवाब दिया, “मैं यहाँ एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में मैनेजर हूँ। कल मिलते हैं, तब और बातें करेंगे। कहाँ ठहरे हो ?”
” शामे दां होटल, सीलमपुर, रूम नंबर 508 फिफ्थ फ्लोर।”
“ठीक है कल सुबह मिलते हैं|” इतना बोलकर रामा शंकर अपने स्टाफ के साथ अपने रेजिडेंस पर चला गया और सुरक्षित अपने होटल की ओर|
रमा शंकर नहीं चाहता था कि सुरक्षित उसके स्टाफ के सामने पुरानी घटनाओं को बताये | इसलिए अगली सुबह रामाशंकर सुरक्षित से मिलने उसके होटल पहुँचा। दरवाजे की घंटी बजाई।
सुरक्षित ने मुस्कुराते हुए दरवाजा खोला, “आओ, भाई, मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था।”
“तुम्हारा दिल्ली कैसे आना हुआ?”
“मेरी नौकरी शिक्षा विभाग में लगी थी| वहां मैं सेक्शन अफसर हूँ| विभागीय कुछ काम के सिलसिले में मैं यहाँ आया हूँ|”
“और सब हालचाल क्या है ? गाँव घर का क्या समाचार है?”
“ठीक है, सब ठीक है|”

“भाई, मेरे पापा-मम्मी कैसे हैं? मैंने कई बार पत्र लिखा, लेकिन जवाब नहीं मिला। मिलने का बहुत मन करता है, पर काम में इतना व्यस्त हूँ कि चाहकर भी गाँव नहीं जा पाया।”
सुरक्षित ने मुस्कुराते हुए बोला “सब ठीक हैं। तुम सही समय पर गाँव जाओगे। तुम्हारे कामयाब लौटने की खबर सुनकर सब खुश होंगे।”
सुरक्षित आगे कहा, “देखो भाई, तुम्हारा पत्र तुम्हारे माता-पिता को मिला था या नहीं, इसका तो मुझे पता नहीं। लेकिन इतना जरूर जानता हूँ कि तुम्हारा भाई अभय शंकर उन दोनों पर बहुत जुल्म ढा रहा है। उसने किसी दूसरी जाति की लड़की से शादी कर ली है और पैसों के लिए रोज माँ-बाबूजी से झगड़ा करता है।”
“सच में ! ऐसा कैसे कर सकता है वह?”
“यह तो तुम्हें गाँव जाकर ही पूछना पड़ेगा। मैं तो इतना भी सुना हूँ कि एक दिन अभय ने गुस्से में आकर चाचा-चाची को वृद्धाश्रम भेजने की कोशिश की थी। लेकिन गाँववालों ने इसका विरोध करके उन्हें वहीं गाँव में रोक लिया। जब मैं उनसे मिलने गया, तो चाचा ने साफ कुछ नहीं कहा, लेकिन चाची के सामने एक बार बोले थे—‘हम तो मझधार में फँसे हुए हैं, बबुआ । एक बेटा हमें छोड़कर चला गया और दूसरा नाक में दम कर रखा है।’”
रामाशंकर यह सुनकर व्यथित हो गया। उसने पूछा, “तुम कब गाँव लौट रहे हो?”
“परसों, शाम चार बजे की फ्लाइट से,” सुरक्षित ने बताया।
रामाशंकर बोला, “ठीक है, मैं तुम्हें कुछ पैसे दूँगा। वह मेरे माँ-बाबूजी को दे देना और कह देना कि मैं शनिवार को गाँव आ रहा हूँ। तुम भी उस दिन वहाँ रहना।”
सुरक्षित ने हामी भरते हुए पूछा, “लेकिन यह बताओ, तुम यहाँ तक पहुँचे कैसे?”
रामाशंकर ने अपनी कहानी सुनाते हुए कहा, “भाई, मेरी कहानी बहुत लंबी है। जब मैं गाँव छोड़कर आ रहा था, तो रेलगाड़ी में एक सज्जन मिले। वे मेरे लिए भगवान के समान थे। उन्होंने मुझे अपने घर ले जाकर रहने-खाने का ठिकाना दिया। उनका एक बिजनेस था, जिसमें मैं हिसाब-किताब का काम देखने लगा। उनकी महानता देखो, उन्होंने मेरा नाम कॉलेज में लिखवाया। मैंने वहीं से ग्रेजुएशन किया। मेरी मेहनत और ईमानदारी देखकर उन्होंने मुझे अपनी कंपनी का मैनेजर बना दिया। अब मैं उनकी कंपनी का काम देखता हूँ। बस, यही सोचता रहा कि अभय शंकर माँ-बाबूजी का ध्यान रख रहा होगा। लेकिन तुम्हारी बात सुनकर मैं अंदर से टूट गया हूँ। अब मैं जरूर अपने माता-पिता से मिलने गाँव आऊँगा। मुझे पिता जी का बहुत एहसान है। अगर उन्होंने मुझे उस दिन डाँटा न होता, तो शायद मैं भी आज अभय जैसा बन गया होता।”
तो ठीक है, अब चलता हूँ, आफिस का टाइम हो गया है| बाई, गाँव पर मिलता हूँ|
“बिलकुल, बाई|” इतना कहकर सुरक्षित उसे विदा कर कमरे में अपना काम करने लगा|
अगले दिन सुरक्षित दिल्ली से गाँव पहुँचा| सुरक्षित रात 8 बजे घर पहुंचा था| खाना खाया और अपनी कमरे में सो गया|अगले दिन राधाकांत जी के घर गया। प्रणाम पाती के बाद उसने रामाशंकर की सारी बातें उन्हें बताई। रमा शंकर का हालचाल आनन्दित करने वाला था| राधाकांत जी और शकुंतला देवी अचरज और गर्व से भर गए। जब सुरक्षित ने उन्हें बताया कि रामाशंकर अब एक बड़ी कंपनी का मैनेजर है और उसने उनके लिए पैसे भेजे हैं, तो दोनों के चेहरे खुशी से दमक उठे।राधाकांत जी अपने आप को कोस रहे थे|बहुत दिनों तक रामा शंकर का खोजबीन किये था| जब पता न चला तो थक हारकर बैठ गए थे| आज सुरक्षित ने बुझी हुई राख से एक अंगारा निकाल कर राधा कान्त दम्पति को दे दिया था|
वादा के मुताबिक़ शनिवार को रामाशंकर अपना गाँव पहुँचा। उसकी चमचमाती बड़ी सी गाडी देखकर सभी अचरज में पड़ गए| गाँव के लोग उसकी गाड़ी और उसके व्यक्तित्व को देखकर हैरान थे।क्या वही रामा है जो एक दिन बाप के डांट खाकर भागा था! राधाकांत जी और शकुंतला देवी अपने बेटे की इस रूतबा को देखकर फूले नहीं समा रहे थे। गाडी से उतरकर सबसे पहले उसने अपने माता-पिता के पैर छूए और आशीर्वाद लिया|
आज शकुन्तला देवी का पैर धरती पर न पड़ रहा था|बेटा को क्या खिलाऊँ, क्या पिलाऊँ| दलही पूरी और खीर के साथ बेटा के पसंद का आलूदम नास्ता के लिए बनाई| सुरक्षित पहले से ही रामा शंकर के आने की बात बता जो दे थी|शकुन्तला देवी रामा शंकर से पूछकर उसका नास्ता लागा दी| अपने पसंद का डिश देखकर रमा शंकर अन्दर से काफी खुश था| वह खा भी रहा था और घर परिवार का हालचाल भी कर रहा था|लगभग नास्ता कर चुका था तभी दरवाजा पर से अभय शंकर टर्र लड़खड़ाते हुए आता दिखलाई दिया| रामा शंकर आश्चर्य के साथ माँ से पूछा – अभय ही है न, माँ ?
“हां, वही है| मैं करमजली थी कि अपने कोख से ऐसा बेटा को जन्म दिया |”
ऐसा नहीं कहते माँ | इसका यह हाल हमेशा रहता है ?
“हाँ, बेटा, रोज का उसका यही धंधा है| हमलोग तो रोज जहर का घूंट पीते हैं. आज तो खुद चलकर आ रहा है | कई रोज तो दूसरा तीसरा पियक्कड़ उसे दोनों तरफ से पकड़ के लाता है|सब खेत बारी बेच बाच के पी रहा है| तुम भी यहाँ नहीं रहते हो| कुछ बोलने पर दोनों व्यक्ति हम लोगों का गरज-गरज के ईज्जत उतार देता है|” माँ रमा शंकर से बोल ही रही थी तब तक अभय दरवाजा पर आकर सीधे घर के अन्दर अपनी पत्नी के कमरे में चला गया|रामा शंकर को बहुत ताज्जुब हुआ| बिना एक शब्द बोले वह घर में कैसे घुस गया !
गाँव में रामा शंकर को गाडी से आने वाली बात जंगल में आग की तरह फ़ैल गयी| लोग राधाकांत जी के दरवाजे पर आने शुरू हो गए| गाँव के लोगों में काना फूसी शुरू हो गयी कि आज दोनों भाई में गुथम गुथा जरूर होगा|इस बात की आशंका राधा कान्त जी को भी थी कि कहीं दोनों में आज बाता-बाती न कर ले, कहीं झगड़ा-झंझट न हो जाए|गाँव वाले आये,हाल-चाल पूछे| कुछ मन से तो कुछ बेमन से रामा शंकर की खूब बडाई की| कुछ लोगों ने अभय शंकर के द्वारा की जा रही ज्यादतियों की भी चर्चा की| दोपहर आ चुका था| कलउ का समय हो रहा था इसलिए गाँव के लोग धीरे-धीरे विदा हो गए ।
माँ दोपहर का भोजन करने के लिए रामा शंकर को कहा| पूरी-खीर का हल्का नास्ता किया था| लेकिन उस समय खाना लगाने से मना कर दिया | रामा शंकर घर के अन्दर अभय के कमरे में झांका|वह बेसुध बिछावन पर पडा था| बाहर आकर माँ से बोला- वह बेसुध पडा है और उसकी पत्नी भी नीचे चटाई पर चादर बिछा कर आँखें मूंदकर सोयी हुई है| दे दो खाना, खाना खाने के बाद एक बार फिर उसको देखूंगा तबतक उनका नशा भी उतर जाएगा|
प्रेमपूर्वक चावल-दाल और आलू की भुजिया परोसकर माँ लाई,रामा शंकर के पास बैठ गयी और उससे जहां रहता था, वहां का हालचाल पूछने लगी । वर्षों बाद माँ के हाथ का बना खाना खाते हुए उसे स्वर्गिक आनंद का अनुभव हो रहा था। खाना खाने के बाद जब रामा शंकर माँ-बाबूजी के साथ बैठा, तो वे दोनों रोते हुए अभय शंकर के अत्याचारों की बातें सुनाने लगे । यह सब सुनकर रामा शंकर अंदर से बहुत दुखी हो गया और मन-ही-मन एक बड़ा निर्णय ले लिया।
शाम को जब अभय नशे से बाहर आया तब वह दरवाजे पर आया| उसका चेहरा काफी डरावना था| आँखें लाल-लाल थीं, चेहरे पर गुस्सा था | वहां माँ और रामा शंकर दुःख-सुख की बातें कर रहे थे।पिताजी कहीं काम से बाहर चले गए थे| अभय ने आकर बिना किसी अभिवादन के वहीं बैठते हुए कहा, “भैया, आप कब आयें ?”
रामा शंकर तिरस्कार सहित धीमी आवाज में बोला , “जब तुम नशे में धुत होकर घर आए थे।”
अभय को झटका लगा| वह सफाई देते हुए बोला , “भैया, आपको क्या पता! मुझे जीने के लिए पीना पड़ता है। गम भुलाने के लिए इसका सहारा लिया है मैंने । माँ भी अब आपको ही बेटा समझती हैं। मुझे तो कोई अपना मानता ही नहीं। पिताजी भी सौतेला व्यवहार करते हैं। बस, एक मेरी पत्नी है, जो मेरे सुख-दुःख में मेरे साथ है। वही मुझे अभी तक बचा कर रखी है ”
यह सुनकर रामा शंकर क्रोध में आ गया फिरभी उसे समझाते हुए बोला, “बस, अब रहने दो! तुम्हारे लिए सब गलत हैं—माँ-बाबूजी, गाँववाले, यहाँ तक कि पूरा घर। और तुम अकेले सही हो? तुम शराब पीकर अपना शरीर बर्बाद कर रहे हो। माँ-बाबूजी पर दोषारोपण कर अपना मानसिक संतुलन खो रहे हो। और जो जमीन माफियाओं के साथ मिलकर अनैतिक काम कर रहे हो, उसे क्या कहोगे? क्या तुम अपनी हरकतों से खुद को और अपने परिवार को पूरी तरह नष्ट करना चाहते हो?”
अभय सारे मर्यादाओं को तोड़ते हुए बोलने लगा, “हाँ, हाँ, आप आए हैं, माँ ने आपके कान को पूरा भर दी है । और अब आप मुझ पर बरस रहे हैं। मैंने जो जमीन बेची है, वह मेरे हिस्से की थी। उसमें आपका कोई हक नहीं।”
रामा शंकर ने शांत लेकिन दृढ़ स्वर में कहा, “तो सुन लो, मुझे इस घर की किसी संपत्ति से कोई लोभ-लालच नहीं है। लेकिन यह जान लो तुम्हे तुम्हारे कर्मो का फल अवश्य मिलेगा| बचपन से जो भी कुकर्म किया है उसका फल एक दिन तुम्हे भुगतना पडेगा| और जो हिस्से की बात करते हो वह तुम्हारा नहीं है वह माँ पिताजी का है| उन्हीं का खाते-पीते हो और उन्हीं को तंग-तबाह करते हो| मैं तुम्हे माफ़ भी कर दूं ,ईश्वर तुम्हे माफ़ नहीं करेंगे| मैं जब यहाँ नहीं था तब उनका स्वास्थ्य, खाना-पीना, दवा-दारु सब तुम्हारी जिम्मेदारी थी। लेकिन तुमने अपने बिगरैल आदतों के कारण सबकुछ नष्ट कर दिया।
“छोडिये-छोडिये आप कितना बड़ा हरिश्चंद्र हैं यह दूसरे को समझाईये| थोड़ा सा बढ़ क्या गए हो, बहुत बड़े उपदेशक बन गए हो| जब आ ही गए हो तो मेरा हिस्सा बाँट दो| मैं आजीज हो गया हूँ| न रहे बांस न बजे बांसूरी|”
“और माँ बाबूजी का क्या होगा ?”
“आप तो श्रवण पूत हैं ही| कई वर्षों के बाद आये हैं, दो चार घंटा रहेंगे, ऊँची-ऊँची बोलेंगे और चले जायेंगी| सारा देखभाल, सारी जिम्मेदारी मुझे निभानी पड़ती है| किसी से पूछ लीजिये| झलूआ, मलूआ, विक्किया सब से पूछ लीजिये|”
उस समय दरवाजे पर जो लोग थे उसमे वे सब भी थे जिसका नाम अभय ले रहा था| वे तीनों उस भेडिये के समान थे जो मालिक भेडिये के संग रहकर मौज मस्ती करते हैं| कुछ लोग अभय की बात सुनकर आश्चर्य में पड़ गए परन्तु कुछ लोग अभय का समर्थन भी कर रहे थे|
कुछ देर तक बकझक चला| फिर रामा शंकर भीष्म की तरह प्रतिज्ञा करते हुए कहा —इस घर की सारी संपत्ति मैं तुम्हारे नाम करता हूँ। मैं और मेरा परिवार कभी भी इस पर हक नहीं माँगेगा। लेकिन मैं माँ-बाबूजी को अब अपने साथ ले जाऊँगा। उनकी सेवा करना अब मेरा कर्तव्य है।”
जो रोगिया के भावे सो वैदा फरमावे| दोनों भाइयों के झगड़े को सुनने के लिए ग्रामीण अपने सारे काम छोड़कर खड़े थे। रामा शंकर के तमाम तर्कों के बावजूद गाँववालों ने मौन सहमति से अभय का समर्थन किया। वे सोचते थे कि अभय तो गाँव में रहता है, सुख-दुःख में उसका ही सहारा रहेगा।रामा शंकर की बात में हाँ-में-हाँ मिलाने से क्या फायदा?
रामा शंकर बिना किसी बात की परवाह किए एक कागज़ पर सारी संपत्ति अपने छोटे भाई के नाम कर दिया| अपने अधिकार से वंचित होने का अधिकार पत्र अपने अनुज को देते हुए कहा- “याद रखना अभय, अपने भुजबल की कमाई सर्वोपरी होती है| बाप-दादा के द्वारा अर्जित संपत्ति को कुपात्रता विनष्ट कर देती है| लो और मौज करो|”
अभय का सारा नशा उतर चुका था|चोखट के भीतर से अभय की पत्नी रामा शंकर की महानता और उदारता देखकर अपने आप पर शर्म करने लगी, अपनी भूल को समझ गयी|उसने ईशारा से अभय को बुलाई और भैया से माफी माँगने को बोली|अभय भी अपने बड़े भाई के द्वारा किये गए कृत्य से बहुत बोझिल हो चूका था| वह पत्नी से बोला- “तुम ठीक कह रही हो| मुझे माँ पिताजी एवं भैया तीनों से माफी मांगना ही चाहिए|”
अभय अन्दर से बाहर आया- “अपने बड़े भाई के चरण छूते हुए बोला- “भैया, मैं माफ़ करने लायक तो नहीं हूँ लेकिन हो सके तो मुझे माफ कर दीजिये|आपकी उदारता और महानता ने मुझे जगा दिया है| आपसे वादा करता हूँ कि जो मुझसे गलत काम का दाग लग चुका उसे तो नही मिटा पाऊंगा लेकिन मैं वादा करता हूँ कि जब आप मेरे लिए राम बन गए हैं तो आज से मैं भी भरत बनूंगा और कोई शिकायत का मौका नहीं दूंगा|रामा शंकर अभय को गले लगा लिया और माथे को बार बार चूमा| अभय भी अपने आंसू से सारे पापों को उस समय धो रहा था|”

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