Aadhunik prem
चेहरे की मुस्कान को तुम प्रेम समझने लगते हो
हां में हां मिलाने को समर्पण समझने लगते हो
कंधे में यदि हाथ पड़ा तो अपना समझने लगते हो
खुली आंखों से दिन में तुम सपना सजाने लगते हो
गैरो से यदि हुई बात तो स्वार्थ समझने लगते हो
चार दिनों की अय्याशी को पुरुषार्थ समझने लगते हो
दो पलों की खामोशी को वियोग समझने लगते हो
मेरे बाबू ने थाना थाया ऐसे रात को तुम त्याग समझने लगते हो
साथ छोड़ने पर तुम उनको वैश्या करार देते हो
आंखें लाल करके तुम लौटने की गुहार लगाते हो
गुलाबी होंठों की तारीफ सुनने को तुमने विवश किया
दोस्तों के समझने को तुमने जलन का नाम दिया
फिर आज उन्हीं की यादों में क्यों होठ काले करते हो
खर्चों के हिसाब तो तुम गटर में ढूंढते फिरते हो
आज प्रेम की परिभाषा को तुमने नीचे झुका दिया
त्रेता की शबरी को तुमने बोझ तले दबा दिया
राधा कृष्ण के प्रेम से यदि समर्पण सीखे होते
तो चेहरे के आकर्षण को यूँ प्रेम का नाम नहीं देते
सीता मीरा के त्याग को यदि तुमने समझा होता
शरीर की वासना का वियोग यूँ नहीं तुम्हे सहना पड़ता
राम के आदर्शों का यदि पालन तुमने किया होता
चरित्रहीनता का कलंक मस्तक पर यूँ न लगा होता
देखो काल के चक्र ने आज तुम्हें खा लाया
घोर अंधकार के मध्य तुमने निर्जन वन में स्वयं को पाया
चलो उठो, जागो एक नया आरंभ करो
पुरुषार्थ का संकल्प ले के जीवन का आरंभ करो
कोई नहीं इस जग में जो बिना स्वार्थ के प्रेम करे
माता और पिता के जैसे वह तुमसे स्नेह करे
बीते कल का विस्मरण करो, नया लक्ष्य को धारण करो
भीष्म जैसी प्रतिज्ञा लेके, अभिमन्यु सा प्रयत्न करो
चलो उठो जागो एक नया आरंभ करो।